________________ सप्तम शतक : उद्देशक-७j [ 171 में अत्यन्त क्षीणभोगी दुर्बल होने से अन्तिम समय में जीता हुआ भी उत्थानादि द्वारा किन्हीं भोगों को भोगने में जब असमर्थ है, तब वह भोगी कैसे कहलाएगा? उसे भोगत्यागी कहना चाहिए; यह 21 वें सुत्रके प्रश्न का प्राशय है। इसका सिद्धान्तसम्मत उत्तर दिया गया है कि ऐसा दर्बल मानव भी अन्तिम अवस्था में जीता हुआ भी (मन एवं वचन से) भोगों को भोगने में समर्थ होता है। अतएव वह भोगी ही कहलाएगा, भोगत्यागी नहीं। भोगत्यागी तो वह तब कहलाएगा, जब भोगों (स्वाधीन अथवा अस्वाधीन समस्त भोग्य भोगों) का मन-वचन-काया तीनों से परित्याग कर देगा। ऐसी स्थिति में वह भोग-त्यागी मनुष्य निर्जरा करता है, उससे भी देवलोकगति प्राप्त करता है अथवा महानिर्जरा एवं महापर्यवसान वाला होता है। नियतक्षेत्रविषयक अवधिज्ञान वाला अधोऽवधिक कहलाता है। उत्कृष्ट अवधिज्ञानवाला परमावधिज्ञानी चरमशरीरी होता है, और केवलज्ञानी तो चरमशरीरी है ही। इन की भोगित्व एवं भोगत्यागित्व सम्बन्धी प्ररूपणा छद्मस्थ की तरह ही है / असंज्ञी और समर्थ (संजी) जीवों द्वारा अकामनिकरण और प्रकामनिकरण वेदन का सयुक्तिक निरूपण 24. जे इमे भते ! असणिणो पाणा, तं जहा-पुढविकाइया जाव वणस्सतिकाइया छट्ठा य एगइया तसा, एते णं अंधा मूढा तमं पविट्ठा तमपडलमोहजालपलिच्छन्ना अकामनिकरणं वेदणं वेतीति वत्तव्य सिया? हंता, गोयमा ! जे इमे प्रसणिणो पाणा जाव वेदणं वेतीति बत्तव्य सिया। [24 प्र.] भगवन् ! ये जो असंज्ञी (अमनस्क) प्राणी हैं, यथा--पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और. वनस्पतिकायिक; ये पांच (स्थावर) तथा छठे कई सकायिक (सम्मूच्छिम) जीव हैं, जो अन्ध (अन्धों की तरह प्रज्ञानान्ध) हैं, मूढ़ (मोहयुक्त होने से तत्वश्रद्धान के अयोग्य) हैं, तामस (अज्ञानरूप अन्धकार) में प्रविष्ट की तरह हैं, (ज्ञानावरणरूप) तम:पटल और (मोहनीयरूप) मोहजाल से प्रतिच्छन्न (आच्छादित) हैं, वे अकाम निकरण (अज्ञान रूप में) वेदना वेदते हैं, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? _ [24 उ.] हां गौतम ! जो ये असंज्ञो प्राणी पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और छठे कई त्रसकायिक (सम्मूच्छिम) जीव हैं, यावत्""ये सब अकामनिकरण बेदना वेदते हैं, ऐसा कहा जा सकता है। 24. अत्यि भाते ! पभू वि प्रकामनिकरण वेदणं वेदेति ? 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक तुलना कीजिए वत्थ-गंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य / अच्छंदा जे न भुजंति, न से 'चाइ' त्ति वच्चाई।। 2 / / जे य कंते पिए भोए लद्ध वि पिठिकूव्वई। साहीणे चयइ भोए, से हु 'चाइ' त्ति बुच्चई / / ३॥-दशवकालिक सूत्र अ. 2, गा. 2-3 2. अकामनिकरणं-जिसमें अकाम अर्थात वेदना के अनुभव में अमनस्क होने से अनिच्छा ही निकरण = कारण है, वह अकामनिकरण है; यह अजानकारणक है / तावरणरूप) तमः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org