________________ सत्तमो उद्देसओ : सातवाँ उद्देशक परम्पराहारक नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध परम्पराहारक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध की प्ररूपणा 1. परंपराहारए णं भंते / नेरतिए पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा! एवं जहेव परंपरोक्वन्नएहि उद्देसो तहेव निरवसेसो भाणियग्यो / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥छध्वीसइमे सए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो // 26-7 // 11 प्र.] भगवन् ! क्या परम्पराहारक नैरयिक ने पापकर्म का बन्ध किया था ? इत्यादि पूर्ववत् समग्र प्रश्न / 1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार परम्परोपपन्नक नैरयिकादि-सम्बन्धी उद्देशक कहा था, उसी प्रकार समग्र परम्पराहारक उद्देशक कहना चाहिए। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार है' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-परम्पराहारक का स्वरूप-आहारकत्व के द्वितीय प्रादि समयवर्ती को परम्पराहारक कहते हैं। ॥छव्वीसां: शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org