________________ अट्ठमो उद्देसओ : आठवाँ उद्देशक अनन्तरपर्याप्तक नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध अनन्तरपर्याप्तक चौवीस दण्डकों में पाकर्मादिबन्ध को प्ररूपणा 1. प्रणतरपज्जत्तए णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा / गोयमा ! एवं जहेव प्रणंतरोववन्नएहि उद्देसो तहेव निरवसेसं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // छन्वीसइमे सए : अट्ठमो उद्देसनो समत्तो // 26-8 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या अनन्तरपर्याप्तक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भंगात्मक प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नक (नैरयिकादिसम्बन्धी) उद्देशक के समान यह सारा उद्देशक कहना चाहिए। __'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–अनन्तरपर्याप्तक का स्वरूप--पर्याप्तकत्व के प्रथम समयवर्ती को अनन्तरपर्याप्तक कहते हैं। ॥छन्बीसवां शतक : आठवां उद्देशक समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org