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________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 12] [189 छठे गमक में जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पत्ति बतलाई गई है। इसलिए दोनों के चार भवों के चार अन्तमहत अधिक 88,000 वर्ष होते हैं / सातवें और पाठवें गमक का संवेध भी इसी प्रकार जानना चाहिए। नौवें गमक में जघन्यतः पृथ्वीका यिक और अप्कायिक की उत्कृष्ट स्थिति मिलाने से 26,000 वर्ष होते हैं तथा उत्कृष्टत: पूर्वोक्त दृष्टि से एक लाख सोलह हजार वर्ष होते हैं / अन्य सब बातें मूलपाठ में स्पष्ट हैं।' पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले तेजस्कायिकों में उपपात-परिमारणादि बीस द्वारों की प्ररूपरणा 15. जति तेउक्काइएहितो उवव० ? ते उक्काइयाण वि एस चेव वत्तव्वया, नवरं नवसु वि गमएसु तिनि लेस्साप्रो / तेउकाइयाण सूयोकलावसंठिया / ठिती जाणियव्वा / तइयगमए कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति बाससहस्साई बारसहिं रातिदिएहिं अमहियाई, एवतियं० / एवं संबेहो उवजंजिऊण भाणियव्यो। [1-1 गमगा] / [15 प्र.] भगवन् ! यदि वह तेजस्कायिक (अग्निकायिक) से आकर उत्पन्न होता हो तो? इत्यादि प्रश्न / [15 उ.] तेजस्कायिकों के विषय में भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि नौ ही गमकों में तीन लेण्याएँ होती हैं। तेजस्काय का संस्थान सचीकलाप (सइयों के देर के समान होता है। इसकी स्थिति (तीन अहोरात्र की जाननी चाहिए। तीसरे गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट बारह अहोरात्र अधिक 88,000 वर्ष ; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / इसी प्रकार संवेध भी उपयोग (ध्यान) रख कर कहना चाहिए / [गमक 1 से 9 तक ] विवेचन-कुछ तथ्यों का स्पष्टीकरण-(१) तीन लेश्याएँ क्यों?-अप्काय में देवों की उत्पत्ति होती है, इसलिए चार लेश्याएँ कही गई हैं, जबकि तेजस्काय में देवों की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए इसके नौ ही ममकों में तीन लेश्याएँ कही गई हैं। (2) स्थिति -तेजस्काय की स्थिति जघन्य अन्तर्महत की और उत्कष्ट तीन अहोरात्र की है। (3) तृतीय गमक में तेजर उत्पत्ति--उत्कष्ट स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में इसकी उत्पत्ति होती है, तब एक पक्ष उत्कष्ट स्थिति वाला होने से पृथ्वीकायिक के चार भवों को उत्कृष्ट स्थिति 88,000 वर्ष की होती है तथा तेजस्काय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति बारह अहोरात्र होती है / (4) संवेध-छठे से नौवें गमक तक में भव की अपेक्षा से—आठ भव होते हैं और काल को अपेक्षा उपयोगपूर्वक कहना चाहिए / शेष गमकों में उत्कृष्ट असंख्यात भव होते हैं और काल भी असंख्यात होता है / - --- - 1. भगवतो. प्र. वृत्ति, पत्र 826 2. वही, पत्र 826 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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