SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1901 [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले वायुकायिकों में उपपाल-परिमारणादि बीस द्वारों को प्ररूपरणा 16. जति काउकाइएहितो. ? बाउकाइयाण वि एवं चेव नव गमगा जहेव तेउकाइयाणं, नवरं पडागासंठिया पन्नत्ता, संवेहो बाससहस्सेहिं कायव्वो, तइयगमए कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं एमं वाससयसहस्सं, एवतियं० / एवं संवेहो उवजुजिऊण भाणियन्वो / [1- गमगा / [16 प्र. (भगवन् ! ) यदि वे वायुकायिकों से आकर उत्पन्न हों तो ? इत्यादि प्रश्न / [16 उ.] दायुकायिकों के विषय में तेजस्कायिकों की तरह नौ ही गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि वायुकाय का संस्थान पताका के आकार का होता है। संवेध हजारों वर्षो से कहना चाहिए। तीसरे गमक में काल को अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष ; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। इस प्रकार उपयोगपूर्वक संवेध कहना चाहिए / | गमक 1 से 6 तक) विवेचन--कुछ स्पष्टीकरण-(१) वायुकायिक जीवों का संवेध-हजारों से कहना चाहिए, इस कथन का प्राशय यह है कि तेजस्काय के अधिकार में तीन अहोरात्र से संवेध किया गया था, क्योंकि उनकी उत्कृष्ट स्थिति तीन अहोरात्र की होती है, जबकि वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष की होती है, इसलिए इनका संवेध तीन हजार वर्षों से कहना चाहिए। (2) तीसरे गमक में उत्कृष्ट पाठ भव बताए हैं, उनमें से पृथ्वीकायिक के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति 88000 वर्ष की होती है और वायुकायिक जीवों के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति 12000 वर्ष की होती है। इन दोनों को मिलाने से संवेध एक लाख वर्ष का होता है। इस प्रकार जहाँ उत्कृष्ट स्थिति का गमक हो, वहाँ उत्कृष्ट पाठ भव और तदनुसार काल कहना चाहिए। इसके अतिरिक्त दूसरे गमकों में असंख्यात भव और तदनुसार असंख्यात काल कहना चाहिए।' पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले बनस्पतिकायिकों में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 17. जति वणस्सतिकाइएहितो०? वणस्सइकाइयाणं पाउकाइयगमगसरिसा नव गमगा भाणियब्वा, नवरं नाणासंठिया। सरोरोगाहणा पत्रता-पढमएस पच्छिल्लएसु य तिसु गमएस जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं, मझिल्लएसु तिसु तहेव जहा पुढविकाइयाई / संवेहो ठिती य जाणितव्वा / ततिए गमए कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साइं अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसुत्तरं वाससयसहस्सं, एवतियं० / एवं संवेहो उवजुजिऊण भाणियच्चो / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 826 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy