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________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] [569 विवेचन --संवृत, असंवृत और संवतासंवृत का स्वरूप और जागृत प्रावि में अन्तर---जिसने माधवनारों का निरोध कर दिया है. वह सर्वविरत श्रमण संवत कहलाता है / जिसने पाश्रवद्वारों का निरोध नही किया है, वह असवृत है और जिसने आंशिक रूप से प्राश्रवद्वारों का निरोध किया है, अांशिक रूप से आश्रवद्वारों का निरोध नहीं किया है, वह संवतासंवत है। संवत और जागत में केवल शाब्दिक अन्तर है, अर्थ की अपेक्षा से नहीं। दोनों सर्वविरत कहलाते हैं। बोध की अपेक्षा से सर्वविरतियुक्त मुनि जागृत कहलाता है, जब कि तथाविध बोध से युक्त मुनि सर्वविरति की अपेक्षा से संवृत कहलाता है / इसी प्रकार असंवृत और अविरत तथा संवृतासंवत और बिरताविरत में भी अर्थ की दृष्टि मे कोई अन्तर नहीं है। संवत शब्द से यहाँ विशिष्टतर संवृतत्वयुक्त मुनि का ग्रहण किया गया है / वह प्राय : कर्मफल के क्षीण होने से तथा देवानुग्रह से युक्त होने से यथार्थ (सत्य) स्वप्न ही देखता है / दूसरे प्रसंवृत और संवृतासंवत जीव तो यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार के स्वप्न देखते हैं।' कठिन शब्दार्थ--संवुडे-संवत मुनि / संवुडासंवुडे-संवतासंवृत-विरताविरत श्रावक / ' संवृत आदि को जागृत आदि से तुलना-भावसुप्त की तरह असंवृत भी भावतः सुप्त होता है, संवृत भावतः जागृत होता है / और संवृतासंवृत भावतः सुप्तजागृत होता है / स्वप्नों और महास्वप्नों को सख्या का निरूपण 12. कति णं भंते ! सुविणा पनत्ता? गोयमा ! बायालीसं सुविणा पन्नत्ता / [12 प्र.] भगवन् ! स्वप्न कितने प्रकार के होते हैं ? 112 उ.] गौतम ! स्वप्न बयालीस प्रकार के कहे गये हैं। 13. कति णं भंते ! महासुविणा पन्नत्ता ? गोयमा ! तीसं महासुविणा पन्नत्ता। [13 प्र.) भगवन् ! महास्वप्न कितने प्रकार के कहे गये हैं ? {13 उ.] गौतम ! महास्वप्न तीस प्रकार के कहे गए हैं। 14. कति णं भंते ! सब्वसुविणा पन्नत्ता ? गोयमा ! बावरि सव्व सुविणा पन्नत्ता। | 14 प्र.] भगवन् ! सभी स्वप्न कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [14 उ.] गौतम ! सभी स्वप्न वहत्तर कहे गए हैं ? विवेचन-विशिष्ट फलसूचक स्वप्नों की संख्या-वैसे तो स्वप्न असंख्य प्रकार के हो सकते हैं, 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 711 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2556 2. वही, पृ. 2556 3. वियाहपण्णत्तिसुत्त भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 761-762 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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