________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 4] [697 हंता, गोयमा! जावतिया वरा अंधगवण्हिणो जीवा तावतिया परा अंधगवण्हिणो जीधा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / अट्ठारसमे सए : च उत्थो उद्देसनो समत्तो / / 18-4 / / [18 प्र.] भगवन् ! जितने अल्प आयुष्य वाले अन्धकवह्नि जीव हैं, क्या उतने ही उत्कृष्ट आयुष्य वाले अन्ध कह्निजीव हैं ? [18 उ.] हाँ, गौतम ! जितने अल्पायुष्क अन्धकवह्नि जीव हैं, उतने ही उत्कृष्टायुष्क अन्धकह्नि जीव हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं, यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन -अन्धकवह्नि : दो विशेषार्थ--(१) वृत्तिकार के अनुसार-अन्धक की संस्कृत-छाया 'अहिप' होती है, जो वृक्ष का पर्यायवाची शब्द है / अतः अहिप यानी वृक्ष को प्राधित करके रहने वाले अ अंहिपति अर्थात्-बादरतेजस्कायिकजीव / (2) अन्य प्राचार्यों के मतानुसार अन्धक अर्थात् सुक्ष्मनामकर्म के उदय से अप्रकाशक (प्रकाश न करने वाली) वह्नि-अग्नि, अर्थात्-सूक्ष्म अग्निकायिक जीव / ये जितने अल्पायुष्य वाले हैं, उतने ही जीव दीर्घायुष्य वाले हैं। कठिनशब्दार्थ--जावइया--जितने परिमाण में, तावइया—उतने परिमाण में / वरा=अवर यानी आयुष्य की अपेक्षा अर्वाग्भागवर्ती-अल्प आयुवाले / परा-प्रकृष्ट यानी स्थिति से उत्कृष्ट (दीर्घ) पायुष्य वाले // अठारहवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्रि 745-746 ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org