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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 44. नेरतिया पं० पुच्छा। गोयमा ! प्रोघादेसेणं सिय कडजम्मपएसोगाढा जाव सिय कलियोगपएसोगाढा; विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा वि जाव कलियोगपएसोगाढा वि / 44 प्र. भगवन् ! (अनेक) नैरयिक कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं ? इत्यादि प्रश्न / [44 उ.] गौतम ! वे ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ यावत् कदाचित् कल्योजप्रदेशावगाढ हैं / विधानादेश से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं. यावत् कल्योज-प्रदेशावगाढ भी हैं। 45. एवं एगिदिय-सिद्धवज्जा सव्वे वि / |45| एकेन्द्रिय जीवों और सिद्धों को छोड़ कर शेष सभी (असुरकुमार से लेकर वैमानिकों तक के) जीव इसी प्रकार नै रयिक के समान कदाचित् कृतयुग्म-प्रदेशावगाह आदि होते हैं / 46. सिद्धा एगिदिया य जहा जीवा। [46] सिद्धों और एकेन्द्रिय जीवों का कथन सामान्य जीवों के समान है। विवेचन-कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ आदि की प्ररूपणा-सामान्यतया एक जीव की अपेक्षा तथा नैरयिक से लेकर सिद्ध जीव तक कदाचित् कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ कदाचित् व्योज-प्रदेशावगाढ भी होता है, कदाचित् द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ भी होता है, कदाचित् कल्योज-प्रदेशावगाढ होता है, इस प्रकार के कथन का कारण औदारिक आदि शरीरों की विचित्र अवमाना है। सामान्य जीव के कथन के समान ही नैरयिक से लेकर सिद्ध पर्यन्त जानना चाहिए। अनेक जीव सामान्यतः कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं, क्योंकि समस्त जीवों द्वारा अवगाढ प्रदेशों के लोक-प्रमाण अवस्थित असंख्यात होने से उनमें कृतयुग्मता होती है, ज्योजादि नहीं। विधान (एक-एक) की अपेक्षा से जो एक काल में चारों प्रकार के होने का कथन किया गया है, उसका कारण अवगाहना की विचित्रता है।' जीव एवं चौवीस दण्डकों में कृतयुग्मादि समय-स्थिति की प्ररूपरणा 47. जीवे णं भंते ! कि कडजुम्मसमद्वितीए० पुच्छा। गोयमा ! कडजुम्मसमद्वितीए, नो तेयोग०, नो दावर०, नो कलियोगसमयहितीये। [47 प्र.[ भगवन् ! (एक) जीव कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है ? इत्यादि प्रश्न / [47 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है, किन्तु योज-समय, द्वापरयुग्मसमय अथवा कल्योज-समय की स्थिति वाला नहीं है / 48. नेरइए णं भंते ! * पुच्छा / गीयमा ! सिय कडजुम्मसमयद्वितीये जाव सिय कलियोगसमयटितीए। [48 प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है ? इत्यादि प्रश्न / 1. भगवतो. प्रमेय चन्द्रिका टीका, भा. 15, पृ. 770 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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