________________ 558 তাসনিম कि णं भंते ! प्रज्ज सक्के देविदे देवराया देवाणुप्पियं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ, 2 संभंतियवंदणएमं बंदति०, 2 जाव पडिगए ? 'गोयमा !' दि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वदासि - "एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे दो देवा माहिड्डीया जाव महेसक्खा एगविमाणसि देवत्ताए उववन्ना, तं जहा--मायिमिच्छादिदिउवबन्नए, अमायिसम्मदिट्टिउववन्नए य / ___ "तए णं से मायिमिच्छादिदिउववन्नए देवे तं अमायिसम्मबिडिउववनगं देवं एवं वदासिपरिणममाणा पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया। 'तए णं से अमायिसम्मट्टिीउववन्नए देवे तं मायि मिच्छवि द्विउवधनगं देवं एवं वासी-. परिणममाणा योग्गला परिणया, नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया, नो अपरिणया। ___ "तं मायिमिच्छविट्ठीउपवन्नगं देवं एवं पडिहण, एवं पडिहणित्ता ओहि पउंजति, प्रोहिं० 2 मम मोहिणा प्राभोएति, ममं० 2 अयमेयारूवे जाव समुपन्जित्था एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दोवे जेणेव भारहे वासे उल्लुयतीरस्स नगरस्स बहिया एगजंबुए चेइए प्रहापडिरूवं जाव विहरति, तं सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्ता इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेति, एवं संहिता चहि वि सामाणियसाहस्सीहिं० परिवारो जहा सूरियाभस्स जाव निम्घोसनाइतरवेणं जेणेव जंबुद्दीवे दोवे जेणेव भारहे वासे जेणेव उल्लुयतीरे नारे जेणेव एगजंबुए चेतिए जेणेव ममं अंतियं तेणेव पहारेस्थ गमणाए / तए णं से सक्के देविदे देवराया तस्स देवस्स तं दिव्वं देविति दिव्वं देवजुति दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणे ममं अट्ठ उविखतपसिणवागरणाई पुच्छति, पु० 2 संभंतिय जाव पडिगए।" [8 प्र.] 'भगवन् ! इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन् ! अन्य दिनों में (जब कभी) देवेन्द्र देवराज शक (प्राता है, तब) श्राप देवानुप्रिय को वन्दन-नमस्कार करता है, आपका सत्कार-सन्मान करता है, यावत् आपकी पर्युपासना करता है; किन्तु भगवन् ! अाज तो देवेन्द्र देवराज शक्र प्राप देवानुप्रिय से संक्षेप में आठ प्रश्नों के उत्तर पूछ कर और उत्सुकतापूर्वक वन्दना नमस्कार करके शी ही चला गया, इसका क्या कारण है ? [8 उ.] 'गौतम !' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर ने गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा-गौतम ! उस काल उस समय में महाशुक्र कल्प के 'महासामान्य' नामक विमान में महद्धिक यावत् महासुखसम्पन्न दो देव, एक ही विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। उनमें से एक मायी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न हुआ और दूसरा अमायी सम्यग्दृष्टि उत्पन्न हुआ। एक दिन उस मायी मिथ्यादृष्टि देव ने श्रमायी सम्यग्दष्टि देव से इस प्रकार कहापरिणमते हुए पुद्गल परिणत' नहीं कहलाते, 'अपरिणत' कहलाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणत हो रहे हैं, इसलिए वे परिणत नहीं, अपरिणत हैं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org