________________ [559 सोलहवां शतक : उद्देशक 5] इस पर अमायी सम्यग्दृष्टि देव ने भायी मिथ्यादृष्टि देव से कहा--'परिणमते हुए पुद्गल 'परिणत' कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे परिणत हो रहे हैं. इसलिए ऐसे पुद्गल परिणत हैं अपरिणत नहीं। इस प्रकार कहकर अमायो सम्यग्दृष्टि देव ने मायो मिथ्यादृष्टि देव को (युक्तियों एवं तर्को से) प्रतिहत (पराजित) किया। इस प्रकार पराजित करने के पश्चात् अमायी सम्यग्दृष्टि देव ने अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर अवधिज्ञान से मुझे देखा, फिर उसे ऐसा यावत् विचार उत्पन्न हुया कि जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में, उल्लकतीर नामक नगर के बाहर एक जम्बूक नाम के उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यथायोग्य अवग्रह लेकर विचरते हैं। अत: मुझे (वहाँ जा कर) श्रमण भगवान् महावीर को बन्दन-नमस्कार यावत् पर्युपासना करके यह तथारूप (उपर्युक्त) प्रश्न पूछना श्रेयस्कर है / ऐसा विचार कर चार हजार सामानिक देवों के परिवार के साथ सूर्याभ देव के समान, यावत् निर्घोष-निनादित ध्वनिपूर्वक, जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में उल्लकतीर नगर के एकजम्बूक उद्यान में मेरे पास पाने के लिए उसने प्रस्थान किया। उस समय (मेरे पास आते हुए) उस देव की तथाविध दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव (देवप्रभाव) और दिव्य तेजःप्रभा (तेजोलेश्या) को सहन नहीं करता हुमा, (मेरे पास प्राया हुआ) देवेन्द्र देवराज शक्र (उसे देखकर) मुझसे संक्षेप में पाठ प्रश्न पूछ कर शीघ्र ही वन्दना-नमस्कार करके यावत् चला गया। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र (8) में शकेन्द्र झटपट प्रश्न पूछ कर वापिस क्यों लौट गया ? गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् द्वारा दिया गया सयुक्तिक समाधान प्रस्तुत किया गया है।' कठिनशब्दार्थ-मायि-मिच्छादिदिउववन्नए-मायी मिथ्यादृष्टि रूप में उत्पन्न / अमायिसम्मद्दिट्ठि-उववन्नए-अमायी सम्यग्दृष्टिरूप में उत्पन्न / पडिहणइ-प्रतिहत-पराभूत किया (निरुत्तर किया। दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणेः रहस्य-शकेन्द्र की भगवान के पास से संक्षेप में प्रश्न पूछ कर झटपट चले जाने की अातुरता के पीछे कारण उक्त देव की ऋद्धि, द्युति, प्रभाव, तेज आदि न सह सकना ही प्रतीत होता है। शकेन्द्र का जीव पूर्वभव में कार्तिक नामक अभिनव श्रेष्ठी था और गंगदत्त उससे पहले का (जीर्ण-पुरातन) श्रेष्ठी था / इन दोनों में प्रायः मत्सरभाव रहता था। यही कारण है कि पहले के मात्सर्यभाव के कारण गंगदत्त देव की ऋद्धि प्रादि शकेन्द्र को सहन न हुई।३ सम्यग्दृष्टि गंगदत्त द्वारा मिथ्यावृष्टिदेव को उक्त सिद्धान्तसम्मत तथ्य का भगवान् द्वारा समर्थन, धर्मोपदेश एवं भव्यत्वादि कथन 9. जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवतो गोयमस्स एयम परिकहेति तावं च णं से देवे तं देसं हव्वमागए। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) प्र. 756-757 2. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2501 (ख) भगवती अ. वृत्ति, पत्र 707 3. वही अ. वृत्ति, पत्र 70 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org