________________ अष्टम शतक : उद्देशक-५] [307 जब एकविध-द्विविध प्रतिक्रमण करता है, तब ३२---स्वयं करता नहीं, मन और वचन से; अथवा 33- स्वयं करता नहीं, मन और काया से; अथवा ३४-स्वयं करता नहीं, वचन और काया से; अथवा ३५--दूसरों से करवाता नहीं, मन और वचन से; अथवा ३६-दूसरों से करवाता नहीं, मन और काया से; अथवा ३७-दूसरों से करवाता नहीं, वचन और काया से ! अथवा ३८-करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और वचन से; अथवा ३६-करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और काया से; अथवा ४०--करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन और काया से / जब एकविध-एकविध प्रतिक्रमण करता है, तब ४१–स्वयं करता नहीं, मन से; अथवा ४२-स्वयं करता नहीं, वचन से; अथवा ४३-स्वयं करता नहीं. काया से: अथवा 44--- से करवाता नहीं, मन से; अथवा ४५-दूसरों से करवाता नहीं, वचन से; अथवा ४६-दूसरों से करवाता नहीं, काया से; अथवा ४७-~-करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन से; अथवा ४८करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन से; अथवा ४९--करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, काया से। [3] पडप्पन्न संवरमाणे कि तिविहं तिविहेणं संवरेइ ? एवं जहा पडिक्कममाणेणं एगूणपण्णं भंगा भणिया एवं संवरमाणेण वि एगणपण्णं भंगा माणियन्या। __ [6-3 प्र.] भगवन् ! प्रत्युत्पन्न (वर्तमानकालीन) संवर करता हुमा श्रावक क्या त्रिविधविविध संवर करता है ? इत्यादि समग्र प्रश्न पूर्ववत् यावत् एकविध-एकविध संवर करता है ? [6-3 उ.] गौतम ! प्रत्युत्पन्न का संबर करते हुए श्रावक के पहले कहे अनुसार (त्रिविधविविध से लेकर एकविध-एकविध तक) उनचास (46) भंग (जो प्रतिक्रमण के विषय में कहे गए हैं, वे ही) संवर के विषय में कहने चाहिए / [4] प्रणागतं पच्चक्खमाणे कि तिविहं तिविहेणं पच्चक्खाइ ? एवं ते चेव भंगा एगूणपण्णं भाणियव्या जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा। [6-4 प्र.] भगवन् ! अनागत (भविष्यत्) काल (के प्राणातिपात) का प्रत्याख्यान करता हुआ श्रावक क्या त्रिविध-त्रिविध प्रत्याख्यान करता है ? इत्यादि समग्र प्रश्न पूर्ववत् / [6-4 उ.] गौतम ! पहले (प्रतिक्रमण के विषय में) कहे अनुसार यहाँ भी उनचास (49) भंग कहने चाहिए; यावत् 'अथवा करते हुए का अनुमोदन नहीं करता, काया से;'–यहाँ तक कहना चाहिए। 7. समणोवासगस्स गं भंते ! पुवामेव थूलमुसावादे अपच्चवखाए भवइ, से णं भंते ! पच्छा पच्चाइक्खमाणे? एवं जहा पाणाहवातस्स सीयालं भंगसतं (147) भणितं तहा मुसावादस्स वि भाणियव्वं / _[7 प्र. भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान नहीं किया, किन्तु पीछे वह स्थूल मृषावाद (असत्य) का प्रत्याख्यान करता हुआ क्या करता है ? [7 उ. गौतम ! जिस प्रकार प्राणातिपात के (अतीत के प्रतिक्रमण, वर्तमान के संवर और भविष्य के प्रत्याख्यान; यों त्रिकाल) के विषय में कुल 4643=147 (एक सौ सैंतालीस) भंग कहे गए हैं, उसी प्रकार मृषावाद के सम्बन्ध में भी एक सौ सैंतालीस भंग कहने चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org