________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९] [ 186 अणेगगणनायग जाव दूयसंधिवाल. सद्धि संपरिबुडे मज्जणघरातो पडिनिक्खमति, पडिनिक्वमित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला जेणेव चातुघंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चातुघंट प्रासरहं दुरूहइ, दुरूहित्ता हय-गय-रह जाव संपरिबुडे महता भडचडपर० जाव परिक्खित्ते जेणेव रहमुसले संगामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहमुसलं संगामं प्रोयाते। [20-5] तत्पश्चात् वह वरुण नागनातक, जहाँ स्नानगृह था, वहाँ आया। इसके पश्चात् यावत् कौतुक और मंगलरूप प्रायश्चित्त (विघ्ननाशक) किया, सर्व अलंकारों से विभूषित हुआ, कवच पहना, कोरंटपुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र धारण किया, इत्यादि सारा वर्णन कुणिक राजा की तरह कहना चाहिए। फिर अनेक गणनायकों, दूतों और सन्धिपालों के साथ परिवृत होकर वह स्नानगृह से बाहर / निकल कर बाहर की उपस्थानशाला में आया और सुसज्जित चातुर्घण्ट अश्वरथ पर पारूढ हुप्रा / रथ पर पारूढ हो कर अश्व, गज, रथ और योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना के साथ, यावत् महान् सुभटों के समूह से परिवृत होकर जहाँ रथमूसल-संग्राम होने वाला था, वहाँ आया। वहाँ आकर वह रथमूसल-संग्राम में उतरा / "[6] तए णं से वरुणे णागनत्तुए रहमुसलं संगामं ओयाते समाणे प्रयमेयारूवं अभिग्गाह अभिगिण्हइ–कम्पति मे रहमुसलं संगाम संगामेमाणस्स जे पुब्धि पहणति से पडिहणित्तए, श्रवसेसे नो कप्पतीति / अयमेतारूवं अभिग्गहं अभिगिहित्ता रहमुसलं संगाम संगामेति / [20-6] उस समय रथमूसल-संग्राम में प्रवृत्त होने के साथ ही वरुण नागनप्तक ने इस प्रकार इस रूप का अभिग्रह (नियम) किया-मेरे लिए यही कल्प (उचित नियम) है कि रथमूसल संग्राम में युद्ध करते हुए जो मुझ पर पहले प्रहार करेगा, उसे ही मुझे मारना (प्रहत करना) है, (अन्य) व्यक्तियों को नहीं / इस प्रकार यह अभिग्रह करके वह रथमूसल-संग्राम में प्रवृत्त हो गया। __ "[7] तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तयस्स रहमुसलं संगाम संगामेमाणस्स एगे पुरिसे सरिसए सरिसत्तए सरिसव्वए सरिसभंडमत्तोवगरणे रहेणं पडिरहं हन्वमागते / [20-7] उसी समय रथमूसल-संग्राम में जूझते हुए वरुण नाग-नप्तक के रथ के सामने प्रतिरथी के रूप में एक पुरुष शीघ्र ही पाया, जो उसी के सदृश, उसी के समान त्वचा वाला था, उसी के समान उम्र का और उसी के समान अस्त्र-शस्त्रादि उपकरणों से युक्त था। ____[8] तए णं से पुरिसे वरुणं णागणतुयं एवं वयासी-पहण भो ! वरुणा ! णागणत्तुया ! पहण भो ! वरुणा ! णागणत्तुया ! तए णं से वरुणे पागणसुए तं पुरिसं एवं वदासिनो खलु में कप्पति देवाणुप्पिया ! पुखि प्रहयस्स पहणित्तए, तुमं चेव पुब्वं पहणाहि / [20-8] तब उस पुरुष ने वरुण नागनपतृक को इस प्रकार (ललकारते हुए) कहा-'हे वरुण नागनत्तुना ! मुझ पर प्रहार कर. अरे, वरुण नागनत्तुमा ! मुझ पर वार कर!" इस पर वरुण नागनत्तुप्रा ने उस पुरुष से यों कहा- "हे देवानुप्रिय ! जो मुझ पर प्रहार न करे, उस पर पहले प्रहार करने का मेरा कल्प (नियम) नहीं है / इसलिए तुम (चाहो तो) पहले मुझ पर प्रहार करो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org