________________ 242] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3 प्र.] भगवन् ! (नरक-) पृथ्वियों कितनी कही गई हैं ? [3 उ.] गौतम ! (नरक-) पृथ्वियाँ सात कही गई हैं / यथा-रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी। 4. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता? गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [4 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहे गए हैं ? [4 उ.) गौतम ! (रत्नप्रभापृथ्वी में) तीस लाख नारकावास कहे हैं / 5. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि / [5 प्र.] भगवन् ! वे नरकावास संख्येय (योजन) विस्तृत हैं या असंख्येय (योजन विस्तृत हैं ? [5 उ.] गौतम ! वे संख्येय (योजन) विस्तृत भी हैं और असंख्येय (योजन) विस्तृत भी हैं / विवेचन-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 2 से 5 तक) में नरकपृथ्वियों की संख्या, रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों की संख्या एवं उनके विस्तार का प्रतिपादन किया गया है / कठिन शब्दों के अर्थ-संखेज्जवित्थडा–संख्यात योजन विस्तार वाले / असंखेज्ज-वित्थडाअसंख्यात योजन विस्तार वाले / " रत्नप्रभा के संख्यात विस्तृत नरकावासों में विविध विशेषण विशिष्ट नारकों की उत्पत्ति-सम्बन्धी उनचालीस प्रश्नोत्तर 6. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं केवतिया नेरइया उववज्जति ? 1, केवतिया काउलेस्सा उववज्जति ? 2, केवतिया कण्हपक्खिया उवयज्जति ? 3, केवतिया सुक्कपक्खिया उववज्जति ? 4, केवतिया सन्नी उचवज्जति ? 5, केवतिया असन्नी उववज्जति ? 6, केवतिया भवसिद्धिया उववज्जति ? 7, केवतिया अभवसिद्धिया उववज्जति ? 8, केवतिया आभिणिबोहियनाणी उववज्जति ? है, केवतिया सुयनाणी उववज्जति ? 10, केवतिया प्रोहिनाणी उववज्जति ? 11, केवतिया मतिअन्नाणी उववज्जति ? 12, केवतिया सुयअन्नाणी उववज्जति ? 13, केवतिया विभंगनाणी उबवज्जति ? 14, केवतिया चक्खुदंसणी उववज्जति ? 15, केवतिया अचक्खुदंसणी उववज्जति ? 16, केवतिया ओहिदसणी उववज्जति ? 17, केवतिया प्राहारसण्णोवउत्ता उववज्जति ? 18, केवइया भयसपणोवउत्ता उववज्जंति ? 19, केवतिया मेहुणसण्णोवउत्ता उववज्जति ? 20, केवतिया परिग्गहसण्णोवउत्ता उवयज्जति ? 21, केवतिया इथिवेदगा उववज्जति ? 22, केवतिया पुरिसवेदगा उववज्जति? 1. भगवती सूत्र, (प्रमेयचन्द्रिका टोका) भा. 10, पृ. 459 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org