________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [121 पौषध के चार प्रकार-(१) आहारत्याग पौषध, (2) शरीरसत्कारत्याग पौषध, (3) ब्रह्मचर्य-पौषध और (4) अव्यापार पौषध / आहारत्याग पौषध-वह है जिसमें श्रावक 8 प्रहर के लिए चतुविध आहार का त्याग करके धर्म का पोषण (धर्मध्यानादि से) करता है। शरीरसत्कारत्याग पौषध-वह है, जिसमें शरीर के विविध प्रकार से (स्नान, उबटन, गन्ध, विलेपन, तेल, इत्र, पुष्प, वस्त्र, आभरण आदि के द्वारा) संस्कारित, सत्कारित करने का त्याग किया जाता है / ब्रह्मचर्य-पौषध-प्रब्रह्मचर्य (मैथुन) का सर्वथा त्याग करके कुशल अनुष्ठानों द्वारा धर्मवृद्धि करना। और अव्यापार-पौषध -वह है, जिसमें कृषिवाणिज्यादि सावध व्यापारों का तथा शस्त्र-अस्त्र आदि का एवं सर्व सावध व्यापारों का त्याग किया जाता है और शुद्ध धर्मध्यान एवं आत्मनिरीक्षण, अात्मचिन्तन में काल व्यतीत किया जाता है / ' शंख श्रमणोपासक ने इन चारों का त्याग करके पौषध किया था। कठिन शब्दार्थ-हिज्जो-कल, गत दिवस / होलसि निन्दा, अवज्ञा, अवहेलना / खिसहतुच्छकारना, निन्दा करना / 'सुदक्खु जागरियं जागरिए-जिसका दर्शन (दृष्टि) शुभ या सुष्ठ है, वह सुदक्खु कहलाता है, उसकी जारिका अर्थात् प्रमाद और निद्रा के त्यागपूर्वक जो जागरणा है, वह सुदवखु जागरिका है / ऐसी जागरिका उसने जागृत की। भगवान द्वारा विविध जागरिका-प्ररूपणा 25. [1] 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, वं० 2 एवं क्यासी-कइविधा गं भंते ! जागरिया पन्नता ? गोयमा ! तिविहा जागरिया पन्नता, तं जहा-बुद्धजागरिया 1 अबुद्धजागरिया 2 सुदक्खुजागरिया 3 / [25-1 प्र.] 'हे भगवन्' ! इस प्रकार सम्बोधित करते हुए भगवान् गौतम स्वामी ने, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा-भगवन् ! जागरिका कितने प्रकार की कही गई है। [25-1 उ.] गौतम ! जारिका तीन प्रकार की कही गई हैं / यथा-(१) बुद्धजागरिका, (2) प्रबुद्धजागरिका और (3) सुदर्शनजागरिका / [2] से केण?णं भंतें! एवं बुच्चति 'तिविहा जागरिया पन्नत्ता, तं जहा–बुखजागरिया 1 अबुद्धजागरिया 2 सुदक्खुजागरिया 3' ? 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 1981 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 555 "सुट्ठ दरिसणं जस्स सो सुदक्खू तस्स जागरिया- प्रमादनिद्राव्यपोहेन जागरणं सुदक्खुजागरिया, तां जागरितः कृतवान् / ' -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 555 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org