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________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९] [ 187 [18 उ.] गौतम ! उनमें से दस हजार मनुष्य तो एक मछली के उदर में उत्पन्न हुए, एक मनुष्य देवलोक में उत्पन्न हुमा, एक मनुष्य उत्तम कुल (मनुष्यगति) में उत्पन्न हुअा, और शेष प्रायः नरक और तिर्यञ्चयोनियों में उत्पन्न हुए हैं। 16. कम्हा णं भंते ! सक्के देविदे देवराया, चमरे प्रसुरिदे असुरकुमारराया कूणियस्स रणो साहज्जं दल इत्था? गोयमा ! सक्के देविदे देवराया पुब्वसंगतिए, चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया परियायसंगतिए, एवं खलु गोयमा ! सक्के देविदे देवराया, चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रण्णो साहज्ज दल इत्था / [19 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र और असुरेन्द्र असुरराज चमर, इन दोनों ने कणिक राजा को किस कारण से सहायता (युद्ध में सहयोग) दी ? [19 उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक तो कुणिक राजा का पूर्वसंगतिक (पूर्वभवसम्बन्धी--- कार्तिक सेठ के भव में मित्र) था, और असुरेन्द्र असुरकुमार राजा चमर, कूणिक राजा का पर्यायसंगतिक (पूरण नामक तापस की अवस्था का साथी) मित्र था / इसीलिए, हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र और असुरेन्द्र असुरराज चमर ने कूणिक राजा को सहायता दी। विवेचन-रथमूसलसंग्राम में जय-पराजय का, उसके स्वरूप का तथा उसमें मत मनुष्यों की संख्या, गति प्रादि का निरूपण-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 14 से 16 तक) में रथमूसलसम्बन्धी सारा वर्णन प्रायः पूर्वसूत्रोक्त महाशिलाकण्टक की तरह ही किया गया है / ऐसे युद्धों में सहायता क्यों ?—इन महायुद्धों का वर्णन पढ़ कर एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन्द्र जैसे सम्यग्दृष्टिसम्पन्न देवाधिपतियों ने कणिक की अन्याययुक्त युद्ध में सहायता क्यों को ? इसी प्रश्न को शास्त्रकार ने उठाकर उसका समाधान दिया है। पूर्वभवसांगतिक और पर्यायसांगतिक होने के कारण ही विवश होकर इन्द्रों तक को सहायता देने हेतु प्राना पड़ता है / 'संग्राम में मृत मनुष्य देवलोक में जाता है, इस मान्यता का खण्डनपूर्वक स्वसिद्धान्तमण्डन 20. [1] बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एबमाइक्खति जाव परूवेति-एवं खलु बहवे मणुस्सा अन्नतरेसु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति / से कहमेतं भंते ! एवं ? __ गोयमा ! जंणं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव उववत्तारो नवंति, जे ते एवमासु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि [20-1 प्र.] भगवन् ! बहुत-से (धर्मोपदेशक या पौराणिक) लोग परस्पर ऐसा कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि-अनेक प्रकार के छोटे-बड़े (उच्चावच) संग्रामों में से किसी भी संग्राम में सामना करते हुए (अभिमुख रहकर लड़ते हुए) पाहत हुए एवं घायल हुए बहुत-से मनुष्य मृत्यु के समय मर कर किसी भी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं / भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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