________________ छन्वीसइमाइ-एगणतीसइमाइं चउ-सयाई छव्वीसवें से उनतीसवें तक चार शतक [प्राथमिक] * भगवतीसूत्र के छठवीसवें से लेकर उनतीसवें तक चार शतकों का प्रतिपाद्य विषय प्रायः समान होने से चारों का प्राथमिक एक साथ दिया जा रहा है / * इन शतकों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं--- १–बंधिसय (छबीसवां शतक), २-करिसुसयं (सत्ताईसवां शतक), ३-कम्म-समज्जण-सयं (अट्ठाईसवाँ शतक), ४-कम्म-पट्टवण-सयं (उनतीसवां शतक)। * इनके प्रतिपाद्य विषय ही इनके अर्थ को सूचित करते हैं--(१) बंधीशतक में कालिक पापकर्म बन्ध और ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्मबन्ध का, जीव आदि ग्यारह स्थानों (द्वारों) के माध्यम से ग्यारह उद्देशकों में प्ररूपण है। (2) 'करिसुशतक' में भी त्रैकालिक पापकर्म (क्रिया), करण और ज्ञानावरणीयादि कर्मकरण का पूर्वोक्त ग्यारह स्थानों के माध्यम से ग्यारह उद्देशकों में निरूपण है / (3) कर्मसमर्जनशतक में त्रैकालिक पापकर्म, अष्टविध कर्मों के समर्जन एवं समाचरण का पूर्वोक्त ग्यारह स्थानों के माध्यम से ग्यारह उद्देशकों में निरूपण है। (4) कर्मप्रस्थापनशतक में जीव और चौवीस दण्डकों में सम-विषमकाल की अपेक्षा पापकर्म एवं अष्टविधकर्मवेदन के प्रारम्भ और अन्त का ग्यारह उद्देशकों में निरूपण है / * चारों शतकों में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा चार भंगों के रूप में हुई है। * ग्यारह स्थान (द्वार) इस प्रकार हैं-(१) जीव, (2) लेश्या, (3) पाक्षिक (शुक्लपाक्षिक और कृष्णपाक्षिक), (4) दृष्टि, (5) अज्ञान, (6) ज्ञान, (7) संज्ञा, (8) वेद, (6) कषाय, (10) योग और (11) उपयोग / प्रत्येक शतक में ये ग्यारह उद्देशक हैं। * छन्वीसवे शतक के प्रथम उद्देशक में सामान्य जीव तथा लेश्यादि-विशिष्ट जीव के कालिक पापकर्मबन्ध का तथा सामान्य नारक आदि तथा लेश्यादिविशिष्ट नारक आदि का अष्टविध कर्मबन्ध का चार भंगों के रूप में निरूपण है / * दूसरे उद्देशक में अनन्तरोपपन्नक नरयिक आदि में पूर्ववत् ग्यारह स्थानों के माध्यम से पापकर्म बन्ध व कर्मबन्ध की चतुर्भगी की प्ररूपणा है / तीसरे उद्देशक में परम्परोपपत्रक ने रयिकादि में चतुर्भगी की प्ररूपणा है। Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org