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________________ मुनि अतिमुक्तकुमार भगवतीसूत्र शतक 5, उद्देशक 4 में अतिमुक्तकुमार श्रमण का उल्लेख है। जैन साहित्य में अतिमुक्तकुमार नामक दो श्रमण हुए हैं-एक भगवान् अरिष्टनेमि के युग में, जो कंस के लघुभ्राता थे; दूसरे प्रतिमुक्तकुमार भगवान महावीर के युग में हुए हैं, जिनका उल्लेख अन्तकृशांग में है। आचार्य अभयदेव के अनुसार अतिमुक्तकुमार ने भगवान महावीर के पास छह 52 वर्ष की उम्र में प्रव्रज्या ग्रहण की थी। सामान्य नियम है कि आठ वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति को प्रव्रज्या न दी जावे / 2 5.3 / अतिमुक्तकुमार भगवान महावीर के शासन में सबसे लघु श्रमण थे। भगवान महावीर ने अतिमुक्तकुमार के प्रायुष्य को नहीं पर उनमें रही हुई तेजस्विता को निहारा था, बालक में भी सहज प्रतिभा रही हुई होती है। वह भी अपना उत्कर्ष कर सकता है यह प्रस्तुत कथानक से स्पष्ट है। प्रस्तुत आगम में बालमुनि अतिमुक्तकुमार ने पानी में पात्र तिराया यह भी उल्लेख है जो उनके सरल जीवन का प्रमाण है। नौका के माध्यम से वे उस समय अपनी जीवन-नौका को तिराने की कमनीय कल्पना किए हुए थे / प्रात्मविकास का बाधक : मोह भगवतीसूत्र शतक 14, उद्देशक 7 में गणधर मौतम का एक सुनहरा प्रसंग है / गणधर मौतम अपने सामने ही प्रजित मुनियों को मुक्त होते और केवलज्ञान प्राप्त करते हुए देखकर विचार में पड़ गए कि मैं अभी तक मुक्त क्यों नहीं बना हूँ! मुझे केवलज्ञान-केवल दर्शन प्राप्त क्यों नहीं हुआ है ! जब उनका विचार चिन्ता में परिवर्तित हो गया तब भगवान महावीर ने रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा- वत्स! तेरा जो स्नेह मेरे प्रति है वहीं इसमें बाधक हो रहा है। प्रसंग में यह भी बताया है कि मेरे साथ तुम्हारा सम्बन्ध अाज का नहीं बहुत पुराना है। प्राचीन टीकाकारों ने बताया, भगवान महावीर का जीव जव मरीचि के रूप में था तब गौतम का जीव उनका शिष्य कपिल था। भगवान महावीर का जीव जब त्रिपृष्ट वासुदेव था तब गौतम का जीव उनका मारथी था। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव के युग से लेकर महावीर युग तक गणधर गौतम के जीवन का महावीर के साथ सम्बन्ध रहा है। प्रस्तुत प्रसंग से यह बात स्पष्ट है कि जरा-सा मोह भी मोहन (भगवान) बनने में अन्तरायभूत होता है। __ भगवतीसूत्र शतक 7, उद्देशक 9 में भगवान महावीर के युग में हुए महाशिलाकंटक संग्राम का उल्लेख है। युद्ध का लोमहर्षक वर्णन पढ़कर लगता है कि अाधुनिक वैज्ञानिक साधनों की तरह उस युग में भी तीक्ष्ण और संहारकारी साधन थे। इस युद्ध का, जिसे जैनपरम्परा में महाशिलाकंटक युद्ध कहा है तो बौद्ध साहित्य के दीघनिकाय की महापरिनिव्वाणसुत्त तथा उसकी अट्ठकथा में बज्जीविजय नाम से वर्णन मिलता है। यह सत्य है कि जैन और बौद्ध परम्परा में युद्ध के कारण युद्ध की प्रक्रिया और युद्ध की निष्पत्ति आदि भिन्न-भिन्न मिलती है तथापि दोनों का सार यही है कि वैशाली, जो गणतन्त्र की राजधानी थी, उस पर राजतन्त्र की राजधानी मगध की ऐतिहासिक विजय हुई थी। जैनपरम्परा में चेटक सम्राट् लिच्छवियों के नायक हैं तो बौद्धपरम्परा 252, (1) छन्वरिसो पच्वाइयो-भगवती टीका 5-3 (2) अन्तकृद्दशांग, 6-14 / 253. "कुमारसमणे" ति षड्वर्यजातस्य तस्य प्रवजित्वात् , प्राह च--"छन्वरिसो पब्वाइनो निग्गथं रोइऊण पावयण'' ति, एतदेव आश्चर्यमिह अन्यथा वर्षाष्टकादारान्न प्रव्रज्या स्यादिति / -भगवती सटीक प्र. भाग, श. 5, उद्दे 4, सूत्र 188, पत्र 219-2 [ 74 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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