________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 7 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में से (1) एक समय में जघन्य एक, दो अथवा तीनं और उत्कृष्ट संख्यात नैरयिक उद्वर्त्तते हैं। (2) कापोतलेश्यी नैरयिक जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्त्तते हैं। (3-4-5) इसी प्रकार यावत् संज्ञो जोव तक नैरयिक उद्वर्तना कहनी चाहिए। (6) असंज्ञी जीव नहीं उद्वर्तते / (7) भवसिद्धिक नैरयिक जीव जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्त्तते हैं। इसी प्रकार (8-13) यावत् श्रुत-अज्ञानी तक उद्वर्तना कहनी चाहिए। (14) विभंगज्ञानी नहीं उद्वर्तते / (15) चक्षुदर्शनी भी नहीं उद्वर्त्तते / (16) अचक्षुदर्शनी जीव जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं। (17-28) इसी प्रकार यावत् लोभकषायो नैरयिक जीवों तक को उद्वर्तना कहनी चाहिए। (26) श्रोत्रेन्द्रिय उपयोग वाले जीव नहीं उद्वर्तते / (30-33) इसी प्रकार यावत् स्पर्शेन्द्रिय के उपयोग वाले भी नहीं उद्वर्त्तते / (34) नोइन्द्रियोपयोगयुक्त नैयिक जघन्य एक, दो या तीन ओर उत्कृष्ट संख्यात उद्वत्तते हैं / (35-36) मनोयोगी और वचनयोगी भी नहीं उद्वतते / (37) काययोगी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्त्तते हैं। इसी प्रकार (38-36) साकारोपयोग वाले और अनाकारोपयोग वाले नैरयिक जीवों की उद्वर्त्तना कहनी चाहिए। विवेचन--उदवर्तना सम्बन्धी 39 प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सूत्र में रत्नप्रभानरकावासों के संख्यान योजन वाले नरकों से विविध विशेषण विशिष्ट 39 प्रकार के नैरयिकों को उद्वर्तना को प्ररूपणा की गई है उद्वर्तना : परिभाषा-शरीर से जोव का निकलना-मरना उद्वर्तना कहलाती है। संख्यात नारकों को हो उद्वर्तना क्यों?—संख्यात योजन विस्तृत नरकावासों में संख्यात नैरपिक हो समा सकते हैं, इसलिए तथाकथित नैरयिक उत्कृष्टतः संख्यात ही उद्वर्तते हैं / असंज्ञी को उद्वर्तना क्यों नहीं ?-उद्वर्तना परभव के प्रथम समय में ही होती है। नरयिक जीव असंज्ञो जीवों में उत्पन्न नहीं होते, इस कारण वे असंज्ञो नहीं उद्वत्तते। नरक से इनकी उद्वर्तना नहीं होती चूणिकार ने एक गाथा द्वारा नरक से जिनकी उद्वर्तना नहीं होती, उन जीवों का उल्लेख किया है असणिणो य विभंगिणो य, उन्वट्टणाइ वज्जेज्जा। दोसु वि य चक्खुदंसणी, मण-वइ तह इंदियाई वा // 1 // अर्थात्-प्रसंजी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, मनोयोगी, वचनयोगी तथा श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों के उपयोग बाले जीव उद्वर्तन नहीं करते। अतः नरक से इनको उद्वर्त्तना का निषेध किया गया है।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, 599, (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा 5, पृ. 2144 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org