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________________ 174] व्याख्याप्राप्तिसूत्र 26. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जित्तए से गं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएस, उक्कोसेणं सातिरेगसागरोवमद्वितीएस उववज्जेज्जा। [26 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थितिवाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? [26 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम काल की स्थिति वाले मसुरकुमारों में उत्पन्न होता है। 27. ते णं भंते ! जीवा ? एवं जहेव एएसि रयणप्पभाए उक्वज्जमाणाणं नव गमका तहेव इह वि नव गमगा भाणियब्वा, णवरं संवेहो सातिरेगेण सागरोवमेण कायग्वो, सेसं तं चेव / [1-9 गमगा] / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०॥ // चतुरवीसइमे सए : विइओ उद्देसमो समत्तो / / 24-2 / / 27 प्र.) भगवन् ! वे जीव (मसुरकुमार) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [27 उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के नौ गमक कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी नौ गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इसका संवेध सातिरेक सागरोपम से कहना चाहिए / शेष समग्र कथन पूर्ववत् समझना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-निष्कर्ष-संज्ञी मनुष्य के नौ ही गमकों का कथन पूर्वोक्त रत्नप्रभा-गमकों के समान समझना चाहिए। विशेषता सिर्फ इतनी है कि इनका संवेध सातिरेक सागरोषम से समझना चाहिये।' ॥चौवीसवाँ शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 821 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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