________________ तेरसमाइ-सोलसम-पज्जंता उद्देसगा तेरहवें से सोलहवें उद्देशक पर्यन्त लेश्यायुक्त सम्यग्दष्टि नारकों की वक्तव्यता के चार उद्देशक 1. एवं सम्मविट्ठीहि बि लेस्सासंजुत्तेहि चत्तारि उद्देसगा कायम्बा, नवरं सम्मट्ठिी पठमबितिएसु दोसु वि उद्देसएसु अहेसत्तमपुढवीए न उववातेयत्रो / सेसं तं चेव / _सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // इक्कतीसइमे सए : तेरसमाइ-सोलसमपज्जता उद्देसगा समत्ता // [1] इसी प्रकार लेश्या सहित सम्यग्दृष्टि के चार उद्देशक कहने चाहिए। विशेष यह है कि सम्यग्दृष्टि का प्रथम और द्वितीय, इन दो उद्देशकों में कथन है। पहले और दूसरे उद्देशक में अधःसप्तम नरकपृथ्वी तक सम्यग्दृष्टि का उपपात नहीं कहना वाहिए। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतीसा शतक : तेरहवें से सोलहवें उद्देशक जक समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org