________________ छठा शतक : उद्देशक-४] [47 ____E. ज्ञानद्वार-मत्यादि भेद से अविशेषित औधिक (सामान्य) ज्ञान में तथा मतिज्ञान और श्रतज्ञान में एकवचन और बहवचन को लेकर दो दण्डक होते हैं। दूसरे दण्डक में जीवादि पदों के तीन भंग कहने चाहिए। यथा-प्रोधिकज्ञानी, मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी सदा अवस्थित होने से वे सप्रदेश हैं, यह एक भंग, मिथ्याज्ञान से निवृत्त होकर मात्र मत्यादिज्ञान को प्राप्त होने वाले एवं श्रुत-अज्ञान से निवृत्त होकर श्रुतज्ञान को प्राप्त होने वाले एकादि जीव पाए जाते हैं, इसलिए, तथा मति-अज्ञाव से निवृत्त होकर मतिज्ञान को प्राप्त होने वाले बहुत सप्रदेश और एकादि अप्रदेश', यह दूसरा भंग तथा 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह तीसरा भंग होता है / विकलेन्द्रियों में सास्वादन सम्यक्त्व होने से मत्यादिज्ञान वाले एकादि जीव पाए जाते हैं, इसलिए उनमें 6 भंग घटित हो जाते हैं। यहाँ पृथ्वीकायादि जीव तथा सिद्धपद का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें न नहीं होते। इसी प्रकार अवधिज्ञान आदि में भी तीन भंग सम्भव है। विशेषता यह है कि अवधिज्ञान के एकवचन-बहुवचन-दण्डकद्वय में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिए। मनःपर्यवज्ञान के उक्त दण्डकद्वय में जीव और मनुष्य का ही कथन करना चाहिए, क्योंकि इनके सिवाय अन्यों को मनःपर्यवज्ञान नहीं होता। केवलज्ञान के उक्त दोनों दण्डकों में भी मनुष्य और सिद्ध का ही कथन करना चाहिए, क्योंकि दूसरे जीवों को केवलज्ञान नहीं होता। मति आदि अज्ञान से अविशेषित सामान्य (प्रोधिक) अज्ञान, मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान, इनमें जीवादि पदों में तीन भंग घटित हो जाते हैं, यथा- (1) ये सदा अवस्थित होते हैं, इसलिए 'सभी सप्रदेश' यह प्रथम भंग हया, (2-3) अवस्थित के सिवाय जब दूसरे जीव, ज्ञान को छोड़ कर मति-अज्ञानादि को प्राप्त होते हैं, तब उनके एकादि का सम्भव होने से दूसरा और तीसरा भंग भी घटित हो जाता है / एकेन्द्रिय जीवों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह एक ही भंग पाया जाता है। सिद्धों में तीनों अज्ञान असम्भव होने से उनमें अज्ञानों का कथन नहीं करना चाहिए / विभंगज्ञान में जीवादि पदों में मति-अज्ञानादि की तरह तीन भंग कहने चाहिए। इसमें एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिए। 10. योगद्वार-सयोगी जीवों के एक-बहुवचन-दण्डकद्वय औधिक जीवादि की तरह कहने चाहिए / यथा-सयोगी जीव नियमतः सप्रदेशी होते हैं। नैरयिकादि सयोगी तो सप्रदेश और प्रदेश दोनों होते हैं, किन्तु बहुत जीव सप्रदेश ही होते हैं। इस प्रकार नैरयिकादि सयोगी में तीन भंग होते हैं, एकेन्द्रियादि सयोगीजीवों में केवल तीसरा हो भंग पाया जाता है / यहाँ सिद्ध का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे अयोगी होते हैं। मनोयोगी, अर्थात् तीनों योगों वाले संज्ञी जीव, वचनयोगी अर्थात् एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष सभी जीव, और काययोगो, अर्थात् एकेन्द्रियादि सभी जीव / इनमें जीवादि पद में तीन भंग होते हैं। जब मनोयोगी आदि जीव अवस्थित होते हैं, तब उनमें 'सभी सप्रदेश', यह प्रथम भंग पाया जाता है। और जब अमनोयोगीपन छोड़कर मनोयोगीपन आदि में उत्पत्ति होती है, तब प्रथमसमयवर्ती अप्रदेशत्व की दृष्टि से दूसरे दो भंग पाए जाते हैं। विशेष यह है-काययोगी में एकेन्द्रियों में अभंगक है, अर्थात्-उनमें अनेक भंग न होकर सिर्फ एक ही भंग होता है-'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'। तीनों योगों के दण्डकों में यथासम्भव जीवादिपद कहने चाहिए; किन्तु सिद्धपद का कथन नहीं करना चाहिए। अयोगोद्वार का कथन अलेश्यद्वार के समान कहना चाहिए। अतः इसके दूसरे दण्डक में अयोगी जीवों में, जीव और सिद्धपद में तीन भंग और अयोगी मनुष्य में छह भंग कहने चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org