________________ 48 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 11. उपयोगद्वार-साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी नैरयिक आदि में तीन भंग तथा जीवपद और पृथ्वीकायादिपदों में एक ही भंग (बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश) कहना चाहिए / इन दोनों उपयोगों में से किसी एक में से दूसरे उपयोग में जाते हुए प्रथम समय में अप्रदेशत्व और इतर समयों में सप्रदेशत्व स्वयं घटित कर लेना चाहिए। सिद्धों में तो एकसमयोपयोगीपन होता है, तो भी साकार और अनाकार उपयोग की बारंबार प्राप्ति होने से सप्रदेशत्व और एक बार प्राप्ति होते से अप्रदेशत्व होता है। इस प्रकार साकार-उपयोग को बारंबार प्राप्त ऐसे बहुत सिद्धों की अपेक्षा एक भंग (सभी सप्रदेश), उन्हीं सिद्धों की अपेक्षा तथा एक बार साकारोपयोग को प्राप्त एक सिद्ध की अपेक्षा-'बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश', यह दूसरा भंग तथा बारंबार साकारोपयोग-प्राप्त बहत सिद्धों की अपेक्षा एवं एक बार साकारोपयोगप्राप्त बहत सिद्धों की अपेक्षा—'बहत बहत अप्रदेश' यह ततीय भंग समझना चाहिए। अनाकार उपयोग में बारंबार अनाका प्राप्त बहुत सिद्धों की अपेक्षा प्रथम भंग, उन्हीं सिद्धों की अपेक्षा तथा एक बार अनाकारोपयोग प्राप्त एक सिद्ध जीव की अपेक्षा द्वितीय भंग, और बारंबार अनाकारोपयोग प्राप्त बहुत सिद्धों की अपेक्षा तथा एक बार अनाकारोपयोग प्राप्त बहुत सिद्धों की अपेक्षा तृतीय भंग समझ लेना चाहिए। 12. वेदद्वार-सवेदक जीवों का कथन सकषायी जीवों के समान करना चाहिए। सवेदक जीवों में भी जीवादि-पद में वेद को प्राप्त बहुत जीवों और उपशमश्रेणी से गिरने के बाद सवेद अवस्था को प्राप्त होने वाले एकादि जीवों की अपेक्षा तीन भंग घटित होते हैं / एकेन्द्रियों में एक ही भंग तथा स्त्रीवेदक आदि में तीन भंग पाए जाते हैं। जब एक वेद से दूसरे वेद में संक्रमण होता है, तब प्रथम समय में अप्रदेशत्व और द्वितीय प्रादि समयों में सप्रदेशत्व होता है, यों तीन भंग घटित होते हैं। नसकवेद के एकवचन-बहवचन रूप दण्डकद्वय में तथा एकेन्द्रियों में बहत सप्रदेश और बहत अप्रदेश, यह एक भंग पाया जाता है। स्त्रीवेद और पुरुषवेद के दण्डकों में देव, पंचेन्द्रिय तियं च एवं मनुष्य ही कहने चाहिए। सिद्धपद का कथन तीनों वेदों में नहीं करना चाहिए। अवेदक जीवों का कथन अकषायो की तरह करना चाहिए। इसमें जीव, मनुष्य और सिद्ध ये तीन पद ही कहने चाहिए / इनमें तीन भंग पाए जाते हैं। 13. शरीरद्वार सशरीरी के दण्डकद्वय में औधिकदण्डक के समान जीवपद में सप्रदेशत्व ही कहना चाहिए। क्योंकि सशरीरीपन अनादि है। नैरयिकादि में सशरीरत्व का बाहुल्य होने से तीन भंग और एकेन्द्रियों में केवल तृतीय भंग ही कहना चाहिए। औदारिक और वैक्रियशरीर वाले जीवों में जीवपद और एकेन्द्रिय पदों में बहत्व के कारण केवल तीसरा भंग ही पाया जाता है; क्योंकि जीवपद और एकेन्द्रिय पदों में प्रतिक्षण प्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान जीव बहुत पाए जाते हैं। शेष जीवों में तीन भंग पाए जाते हैं, क्योंकि उनमें प्रतिपन्न बहुत पाए जाते हैं। एक औदारिक या एक वैक्रिय शरीर को छोड़ कर दूसरे औदारिक या दूसरे वैक्रिय शरीर को प्राप्त होने वाले एकादि जीव पाए जाते हैं। औदारिक शरीर के दण्डकद्वय में नैरयिकों और देवों का कथन तथा वैक्रियशरीर के दण्डकद्वय में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय और विकलेन्द्रिय जीवों का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि नारकों और देवों के औदारिक तथा (वायुकाय के सिवाय) पृथ्वीकायादि में वैक्रियशरीर नहीं होता। वैक्रियदण्डक में एकेन्द्रिय पद में जो तृतीय भंग-(बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश) कहा गया है, वह असंख्यात वायुकायिक जीवों में प्रतिक्षण होने वाली वैक्रियक्रिया की अपेक्षा से कहा गया है। यद्यपि वैक्रियलब्धिवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य अल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org