________________ छठा शतक : उद्देशक-४] [46 होते हैं, तथापि उनमें जो तीन भंग कहे गए हैं, वे वैक्रियावस्था वाले अधिक संख्या में हैं, इस अपेक्षा से सम्भवित हैं। इसके अतिरिक्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों में एकादि जीवों को वैक्रियशरीर की प्रतिपद्यमानता जाननी चाहिए / इसी कारण तीन भंग घटित होंगे। आहारकशरीर की अपेक्षा जीव और मनुष्यों में पूर्वोक्त छह भंग होते हैं, क्योंकि आहारक-शरीर जीव और मनुष्य पदों के सिवाय अन्य जीवों में न होने से प्राहारकशरोरी थोड़े होते हैं। तेजस और कार्मण शरीर का कथन औधिक जीवों के समान करना चाहिए। औधिक जीव सप्रदेश होते हैं, क्योंकि तैजसकार्मणशरीर-संयोग अनादि है। नै रयिकादि में तीन भंग और एकेन्द्रियों में केवल तृतीय भंग कहना चाहिए / इन सशरीरादि दण्डकों में सिद्धपद का कथन नहीं करना चाहिए / (सप्रदेशत्वादि से कहने योग्य) अशरीर जीवादि में जीवपद और सिद्धपद ही कहना चाहिए; क्योंकि इनके सिवाय दुसरे जीवों में अशरीरत्व नहीं पाया जाता / इस तरह अशरीरपद में तीन भंग कहने चाहिए। 14. पर्याप्तिद्वार-जीवपद और एकेन्द्रियपदों में प्राहारपर्याप्ति प्रादि को प्राप्त तथा पाहारादि की अपर्याप्ति से मुक्त होकर आहारादिपर्याप्ति द्वारा पर्याप्तभाव को प्राप्त होने वाले जीव बहुत हैं, इसलिए इनमें 'बहत सप्रदेश और बहत अप्रदेश', यह एक ही भंग होता है; शेष जीवों में तीन भंग पाए जाते हैं / यद्यपि भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति, ये दोनों पर्याप्तियाँ भिन्न-भिन्न हैं, तथापि बहुश्रुत महापुरुषों द्वारा सम्मत होने से ये दोनों पर्याप्तियाँ एक-रूप मान ली गई हैं। अतएव भाषामनःपर्याप्ति द्वारा पर्याप्त जीवों का कथन संज्ञी जीवों की तरह करना चाहिए / इन सब पदों में तीन भंग कहने चाहिए / यहाँ केवल पंचेन्द्रिय पद ही लेना चाहिए / आहार-अपर्याप्ति दण्डक में जीवपद और पृथ्वीकायिक नादि पदों में बहुत सप्रदेश-बहुत अप्रदेश'—यह एक ही भंग कहना चाहिए। क्योंकि आहारपर्याप्ति से रहित विग्रहगतिसमापन्न बहुत जीव निरन्तर पाये जाते हैं / शेष जीवों में पूर्वोक्त 6 भंग होते हैं, क्योंकि शेष जीवों में आहारपर्याप्तिरहित जीव थोड़े पाए जाते हैं / शरीर-अपर्याप्ति-द्वार में जोवों और एकेन्द्रियों में एक भंग एवं शेष जीवों में तीन भंग कहने चाहिए, क्योंकि शरीरादि से अपर्याप्त जीव कालादेश को अपेक्षा सदा सप्रदेश ही पाये जाते हैं, अप्रदेश तो कदाचित् एकादि पाये जाते हैं / नैरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिए / भाषा और मन की पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव वे हैं, जिनको जन्म से भाषा और मन की योग्यता तो हो, किन्तु उसकी सिद्धि न हुई हो / ऐसे जीव पंचेन्द्रिय हो होते हैं / अतः इन जीवों में और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में भाषामन-अपर्याप्ति को प्राप्त बहुत जोव होते हैं, और इसकी अपर्याप्ति को प्राप्त होते हुए एकादि जीव ही पाए जाते हैं। इसलिए उनमें पूर्वोक्त तीन भंग घटित होते हैं / नैरयिकादि में भाषा-मन:-अपर्याप्तकों की अल्पतरता होने से उनमें एकादि सप्रदेश और प्रप्रदेश पाये जाने से पूर्वोक्त 6 भंग होते हैं / इन पर्याप्ति-अपर्याप्ति के दण्डकों में सिद्धपद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्धों में पर्याप्ति और अपर्याप्ति नहीं होती। इस प्रकार 14 द्वारों को लेकर प्रस्तुत सूत्रों पर वृत्तिकार ने सप्रदेश-अप्रदेश का विचार प्रस्तुत किया है। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 261 से 266 तक (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन युक्त) भा. 2, पृष्ठ 984 से 995 तक / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org