________________ 352] [व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र बाहर निकाल कर और उनसे मुख, उदर आदि छिद्रों एवं कान, आदि अन्तरालों को भरकर लम्बाईचौड़ाई में शरीर-परिमाण क्षेत्र में व्याप्त हो-होकर अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, तब वह कषायकमरूप पुद्गलों की प्रबलता से निर्जरा करता है। यह कषायसमुद्घात है / मारणान्तिकसमुद्घात-मरणकाल में होने वाला समुद्घात मारणान्तिकसमुद्घात है / मारणान्तिक समुद्घात आयुष्य कर्म अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है। अर्थात्-जब आयुष्य कम एक अन्तर्मुहुर्त मात्र शेष रहता है, तब कोई जीव मुख-उदरादि छिद्रों तथा कर्ण-स्कन्धादि अन्तरालों में बाहर निकाले हुए अपने आत्मप्रदेशों को भर कर विष्कम्भ (घेरा) और मोटाई में शरीपरिमाण, लम्बाई में कम से कम अपने शरीर के अंगुल के असंख्यातवें भाग-परिमाण तथा अधिक से अधिक एक दिशा में असंख्यात-योजन क्षेत्र को व्याप्त करके रहता है और प्रभूत आयुष्यकर्मपुद्गलों की निर्जग करता है। वैक्रियसमुदघात--विक्रिया के प्रारम्भ करने पर होने वाला समुद्रात वैश्रिय समुद्घात है। यह नामकर्म के आश्रित होता है / वैक्रिय लब्धिवाला जीव विक्रिया करते समय आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर-परिमाण तथा लम्बाई में संख्यात-योजनपरिमाण दण्ड निकालता है और पूर्वबद्ध स्थूल वैक्रियशरीरनामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा कर लेता तैजस समुद्धात यह समुद्धात तेजोलेश्या निकालते समय तैजसशरीरनामकर्म के त होता है। तेजोलेश्या की स्वाभाविक लब्धि प्राप्त कोई साधु आदि 7-8 कदम पीछे हट कर जब आत्मप्रदेशों को विष्कम्भ और मोटाई में शरीर-परिमाण और लम्बाई में संख्यातयोजन-परिमाण दण्ड शरीर से बाहर निकाल कर क्रोध के विषयभूत जीवादि को जलाता है, तब तैजसनामकर्म के प्रभूत कर्मपुद्गलों की निर्जरा करता है। आहारकसमुद्घात—यह समुद्घात आहारकशरीर नामकर्म के प्राश्रित होता है / आहारकशरीर का प्रारम्भ करने पर होने वाला समुद्घात आहारकसमुद्घात कहलाता है / प्राशय यह है कि पाहारकशरीर की लब्धिवाला कोई मुनिराज प्राहारक शरीर के निर्माण की इच्छा से अपने प्रात्मप्रदेशों को विष्कम्भ और मोटाई में शरीरपरिमाण और लम्बाई में संख्यातयोजन-परिमाण दण्ड के प्राकार में बाहर निकालता है, तब वह यथास्थल पूर्वबद्ध आहारक शरीरनामकर्म के प्रभूत कर्मपूद गलों की निर्जरा कर लेता है। प्रज्ञापनासूत्र के छत्तीसवें समुद्घात-पद में केवली समुद्धात' का भी वर्णन है, किन्तु वह यहाँ प्रप्रासंगिक होने से उसका वर्णन नहीं किया गया है।' // तेरहवां शतक : दसवाँ उद्देशक समाप्त / / तेरहवां शतक सम्पूर्ण // 1. (क) पण्णवणासूत्त भा. 1 सू. 2147, पृ. 438 (महावीर जैन विद्यालय) (ख) भगवतीमूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 629 (ग) भगवतीमूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2273-2274 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org