________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 3] [773 37. एवं वणस्सतिकाए वि जाव विहरइ / सेवं भंते ! सेवं मंते ! ति० / / एगूणवीसइमे सए : तइओ उद्देसओ समत्तो / / 19-3 / / [37] इसी प्रकार वनस्पतिकाय भी पूर्ववत् यावत् पीड़ा का अनुभव करता है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन --पांच स्थावर जीवों की पीड़ा का सदृष्टान्त निरूपण-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 33 से 37 तक) में पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक जीवों की पीड़ा की बलिष्ठ युवक द्वारा सिर पर मुष्टिप्रहार से पाहत जराजीर्ण अशक्त वृद्ध की पीड़ा से तुलना करके समझाया गया है / वह इसलिए कि पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीवों को किस प्रकार की पीड़ा होती है, यह छद्मस्थ पुरुषों के इन्द्रियगोचर नहीं हो सकता और न उनके ज्ञान का विषय हो सकता है। इसलिए भगवान ने जराजीण वृद्ध पुरुष का दृष्टान्त देकर बतलाया है। वस्तुत: पृथ्वी कायादि के जीव तो उक्त वृद्ध पुरुष को अपेक्षा भी अतीव अनिष्टतर अमनोज्ञ महावेदना का अनुभव करते हैं।' कठिन शब्दार्थ अक्कते-आक्रान्त, अाक्रमण होने पर / जमलपाणिणा-मुष्टि से, दोनों हाथों से / मुद्धाणंसि-मस्तक पर / एत्तोवि-इससे भी।' // उन्नीसवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. विवंचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2793 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 767 2. (क) वही, पत्र 767 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा 6, पृ. 2792 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org