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________________ 670] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यान-विमान-वैमानिक देवों के विमान दो प्रकार के होते हैं, एक तो उनके सपरिवार आवास करने का होता है, दूसरा सवारो के काम में आने वाला विमान होता है। यहाँ दूसरे प्रकार के विमान का उल्लेख है / नाट्य विधि-नाट्यकला के बत्तीस प्रकारों का विधि-विधानपूर्वक प्रदर्शन / गौतम द्वारा शकेन्द्र के पूर्वभव से सम्बन्धित प्रश्न, भगवान द्वारा कार्तिक श्रेष्ठो के रूप में परिचयात्मक उत्तर 3. [1] 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं जाव एवं वदासी-जहा ततियसते ईसाणस्स (स० 3 उ० 1 सु० 34-35) तहेव कूडागारदिट्टतो, तहेव पुत्वभवपुच्छा जाव अभिसमन्नागया? गोयमा' ई समणे भगवं महाबोरे भगवं गोतम एवं वदासी-"एवं खलु गोयमा !" "तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणापुरे नाम नगरे होत्था / वण्णओ। सहस्संबवणे उज्जाणे / वण्णओ।" / "तत्थ णं हत्यिणापुरे नगरे कत्तिए नामं सेट्ठो परिक्सइ अड्ढे जाव अपरिभूए णेगमपढमासहिए, णेगमट्ठसहस्सस्स बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य कोडुबेसु य एवं जहा रायपसेणइज्जे' चित्ते जाय चक्नुभूते, णेगमट्ठसहस्सस्स सयस य कुटुंबस्स प्राहेवच्चं जाव करेमाणे पालेमाणे समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरति / [3 प्र.] 'भगवन् !' इस प्रकार (सम्बोधित कर) भगवान् गौतम ने, श्रमण भगवान् महावीर से पूछा--जिस प्रकार तृतीय शतक (के प्रथम उद्देशक के सू. 34-35) में ईशानेन्द्र के वर्णन में कूटागारशाला के दृष्टान्त के विषय में तथा (उसके) पूर्वभव के सम्बन्ध में प्रश्न किया है, उसी प्रकार यहाँ भी; यावत् 'यह ऋद्धि कैसे सम्प्राप्त हुई है',-तक (प्रश्न का उल्लेख करना चाहिए / ) [3 उ.] 'गौतम!' इस प्रकार सम्बोधन कर श्रमण भगवान महावीर ने, भगवान् गौतमस्वामी से इस प्रकार कहा हे गौतम ! ऐसा है कि उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में हस्तिनापुर नामक नगर था / उसका वर्णन (कहना चाहिए)। वहाँ सहवाम्रवन नामक उद्यान था। उसका वर्णन (करना चाहिए / ) / उस हस्तिनापुर नगर में कार्तिक नाम का एक श्रेष्ठो (सेठ) रहता था। जो धनाढ्य यावत् किसी से पराभव न पाने (नहीं दबने) वाला था। उसे वणिकों में अग्रस्थान प्राप्त था / वह उन एक हजार पाठ व्यापारियों (नगमों - वणिकों) के बहुत-से कार्यों में, कारणों में और कौटुम्बिक व्यवहारों में पूछने योग्य था, जिस प्रकार राजप्रसेनीय सूत्र में चित्त सारथि का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी, यावत् चक्षुभूत था, यहाँ तक जानना चाहिए। वह कार्तिक श्रेष्ठी, एक हजार आठ व्यापारियों का प्राधिपत्य करता हुआ, यावत् पालन करता हुआ रहता था। वह जोव-अजोव आदि तत्त्वों का ज्ञाता यावत् श्रमणोपासक था। 1. देखिए रायपसेण इय-सुत्तं (गुर्जरप्रन्थ०) कण्डिका 145, पृ. 277-278 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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