________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 10] [751 में भगवान् ने स्याद्वादशैली का आश्रय लेकर उत्तर दिया। प्राशय यह है कि मैं जीव (आत्मा) द्रव्य की अपेक्षा से एक हूँ, प्रदेशों की अपेक्षा से नहीं / ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं दो हूँ / एक ही पदार्थ किसी एक स्वभाव की अपेक्षा एक हो सकता है, वही पदार्थ दूसरे दो स्वभावों की अपेक्षा दो हो सकता है। इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है / जैसे—देवदत्तादि कोई एक पुरुष एक ही समय में उन-उन अपेक्षाओं से पिता, पुत्र, भ्राता, भतीजा, भानजा आदि कहला सकता है / इसीलिए भगवान् ने एक अपेक्षा से स्वयं को एक और दूसरी अपेक्षा से दो कहा / ' अक्षय, अव्यय आदि किस दृष्टि से हैं ?-आत्मा के नित्यत्व अनित्यत्वपक्ष को लेकर सोमिल द्वारा पूछा गया था कि आप अक्षय आदि हैं अथवा यावत् अनेकभूतभाव-भविक हैं ? अक्षय, अव्यय अवस्थित आदि आत्मा के नित्य पक्ष से सम्बन्धित हैं और अनेकभूत-भाव-विक प्रनित्यपक्ष से सम्बन्धित हैं। भगवान् ने दोनों पक्षों को स्वीकार करके स्थावाद शैली से उत्तर दिया है; जिसका प्राशय यह है कि प्रात्मप्रदेशों का सर्वथा क्षय न होने से मैं अक्षय हूँ, तथा आत्मा असंख्यप्रदेशात्मक होने से मैं अक्षत भी हूँ। कतिपयप्रदेशों का व्यय न होने से मैं अव्यय भी हैं। प्रात्मा यद्यपि विविध गतियों एवं योनियों में जाता है, इस अपेक्षा से कथंचित अनित्य मानने पर भी उसकी असंख्यप्रदेशिता कदापि नष्ट नहीं होती, इस दृष्टि से प्रात्मा अवस्थित (कालत्रयस्थायी) है, अर्थात् नित्य है। विविध विषयों के उपयोग वाला होने से प्रात्मा अनेक-भूतभाव-भविक भी है। आशय यह है कि अतीत और अनागतकाल के अनेक विषयों का बोध प्रात्मा से कथंचित् अभिन्न होने से भूत भावी एवं सत्ता के परिणामों (पर्यायों) की अपेक्षा से प्रात्मा का अनित्यपक्ष भी दोषापत्तिजनक सोमिल द्वारा श्रावकधर्म का स्वीकार 28. एस्थ णं से सोमिले माहणे संबुद्ध समणं भगवं महावीरं जहा खंदक्षो (स० 2 उ०१ सु० 32-34) जाव से जहेयं तुरभे ववह / जहा गं देवाणुप्पियाणं अंतियं बहवे राईसर एवं जहा रायप्पसेणइज्जे चित्तो जाय दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ, प० 2 समण भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वं० 2 जाव पडिगए / तए गं से सोमिले माहणे समणोवासए जाव अभिगय० जाव विहरइ / [28] भगवान् की अमृतवाणी सुन कर वह सोमिल ब्राह्मण सम्बुद्ध हुआ। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, इत्यादि सारा वर्णन (द्वितीय शतक, प्रथम उद्देशक के सू. 32-34 में उल्लिखित) स्कन्दक के समान जानना चाहिए; यावत्- उसने कहा-भगवन् ! जैसा आपने कहा, वह वैसा ही है। जिस प्रकार आप देवानुप्रिय के सान्निध्य में बहुत-से राजा-महाराजा आदि, हिरण्यादि का त्याग करके मुण्डित होकर अगारधर्म से अनगार-धर्म में प्रव्रजित होते हैं, उस प्रकार करने में मैं अभी असमर्थ नहीं हूँ; इत्यादि सारा वृत्तान्त राजप्रश्नीय सूत्र (सूत्र 220 से 222 तक पृ. 142-44, प्रा. प्र. स.) में उल्लिखित चित्त सारथि के समान कहना, यावत्-बाहर प्रकार के श्रावकधर्म को स्वीकार किया। श्रावकधर्म को अंगीकार करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को 1-2. भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र, 760 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org