________________ पंचम शतक : प्राथमिक ] [ 401 * छठे उद्देशक में अल्पायु-दीर्घायु के कारणभूत कर्मबन्ध के कारणों का, विक्रेता-क्रेता को किराने से सम्बन्धित लगने वाली क्रियाओं का, अग्निकाय के महाकर्म-अल्पकर्म युक्त होने का, धनुर्धर तथा धनुष-सम्बन्धित जीवों को उनसे लगने वाली क्रियाओं का, नैरयिक विकुर्वणा का, आधाकर्मादि दोषसेवी साधु का, प्राचार्य-उपाध्याय के सिद्धिगमन का तथा मिथ्याभ्याख्यानी के दुष्कर्मबन्ध का प्ररूपण किया गया है। सातवें उद्देशक में परमाणु और स्कन्धों के कम्पन, अवगाहन, प्रवेश तथा सार्धादि का एवं उनके परस्पर स्पर्श का द्रव्यादिगत पुद्गलों की कालापेक्षया स्थिति, अन्तरकाल, अल्पबहुत्व का, चौबीस दण्डक के जीवों के आरम्भ-परिग्रह का पंचहेतु-अहेतु का निरूपण है। * आठवें उद्देशक में द्रव्यादि की अपेक्षा सप्रदेशता-अप्रदेशता की, संसारी एवं सिद्ध जोवों को वृद्धि हानि और अवस्थिति के कालमान की, उनके सोपचयादि की प्ररूपणा है / * नवे उद्देशक में राजगृह-स्वरूप, समस्त जीवों के उद्योत-अन्धकार तथा समयादि कालज्ञान का, पापित्यों द्वारा लोकसम्बन्धी समाधान का एवं देवों के भेद-प्रभेदों का वर्णन है / * दसवें उद्देशक में चम्पा में वणित चन्द्रमा के उदय-अस्त ग्रादि का अतिदेशपूर्वक वर्णन है / ' 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा-१ (बिसयाणुककमो) पृ. 36 से 40 (ख) भगवतीमूत्र टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त खण्ड 2, विषयसूची पृ. 3 से 5 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org