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________________ चौदहवां शतक : उद्देशक =] [413 अबाधान्तर का मापदण्ड प्रस्तुत में जो योजनों का प्रमाण बताया गया है, वह प्रायः प्रमाणांगुल से निष्पन्न समझना चाहिए। कहा भी है 'नग-पुढवि-विमाणाई मिणसु पमाणंगुलेणं तु / ' 'पर्वत, पृथ्वी और विमानों का माप प्रमाणांगुल से करना चाहिए।' किन्तु ईषत्प्राम्भा रापथ्वी और अलोक के बीच में जो देशोन योजन का अबाधान्तर (दूरी) बताया है, वह उत्सेधांगुल प्रमाण से समझना चाहिये / क्योंकि उस योजन के उपरितन कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना कही गई है, जो 333 धनुष और धनुष के विभाग प्रमाण है। यह अवगाहना उत्सेधांगुल (योजन) मानने से ही संगत हो सकती है / ' शालवृक्ष, शालयष्टिका और उदुम्बरयष्टिका के भावी भवों की प्ररूपगा 18. [1] एस णं भंते ! सालरुक्खए उण्हाभिहते तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छहिति, कहिं उवज्जिहिति ? गोयमा ! इहेव रायगिहे नगरे सालरुवखत्ताए पच्चायाहिति / से णं तत्थ अच्चियवंदियपूइयसक्कारियसम्माणिए दिवे सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिते यावि भविस्सइ / [18-1 प्र.] भगवन् ! सूर्य की गर्मी से पीडित, तृषा से व्याकुल, दावानल की ज्वाला से झुलसा हुआ यह (प्रत्यक्ष दृश्यमान) शालवृक्ष काल मास में (मृत्यु के समय में) काल करके कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? [18-1 उ.] गौतम ! यह (प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला) शालवृक्ष, इसी राजगहनगर में पुनः शाल वृक्ष के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ यह अचित, वन्दित, पूजित, सत्कृत, सम्मानित और दिव्य (दैवीगुणों से युक्त), सत्य सत्यावपात, सन्निहित-प्रातिहार्य (पूर्वभवसम्बन्धी देवों द्वारा प्रातिहार्यसामीप्य प्राप्त किया हुआ) होगा तथा इसका पीठ (चबूतरा), लीपा-पोता हुआ एवं पूजनीय होगा। [2] से गं भंते ! तोहितो अणंतरं उन्नट्टित्ता कहिं गमिहिति ? कहि उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति / [18-2 प्र.] भगवन् ! वह (पूर्वोक्त) शालवृक्ष वहाँ से मर कर कहाँ जाएगा और कहाँ उत्पन्न होगा? [18-2 उ.] गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा। 19. [1] एस गं भंते ! साललट्ठिया उपहाभिया तहाभिहया दवग्गिजालाभिहया कालमासे जाब कहि उववज्जिहिति ? गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दो भारहे वासे विझगिरिपायमूले महेसरीए नगरोए सामलिरुक्खत्ताए पच्चायाहिति / सा णं तत्थ अच्चियबंदियपूइए जाव लाउल्लोइयमहिया यावि भविस्सइ / 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 652 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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