________________ इकतालीसवां शतक : उद्देशक 1] [747 11. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरइया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। / एगचत्तालीसइमे सए : रासीजुम्मसते पढमो उद्देसश्रो // 41-1 // [11] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-सम्बन्धी (पूर्वोक्त) कथन नैरयिक-सम्बन्धी कथन के समान है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--विविध पहलुओं से जीवों की उत्पत्ति-सम्बन्धी प्ररूपणा–प्रस्तुत 10 सूत्रों (सू. 2 से 11 तक) में राशियुग्म कृतयुग्मरूप जीवों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निम्नोक्त पहलुओं से विचार किया गया है-(१) ये जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? (2) कितनी संख्या में उत्पन्न होते हैं ? (3) सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर? (4) किस प्रकार से उत्पन्न होते हैं ? (5) प्रात्म-यश से उत्पन्न होते हैं अथवा आत्म-अयश से ? (6) आत्म-यश से जीवन चलाते हैं या आत्म-अयश से? (7) आत्म-यश या आत्म-अयश से जीवन चलाने वाले सलेश्यी होते हैं या अलेश्यी? () सक्रिय होते हैं या प्रक्रिय? (8) एक भव करके जन्म-मरण का अन्त कर देते हैं अथवा नहीं कर पाते ? आत्म-यश तथा आत्म-अयश का भावार्थ-यश का हेतु संयम है। इसलिए यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके 'संयम' के अर्थ में 'यश' शब्द का प्रयोग किया गया है / अतः 'यश' का अर्थ यहाँ संयम है और अयश का अर्थ है-असंयम / सभी जीवों की उत्पत्ति प्रात्म-अयश से अर्थात् आत्म-प्रसंयम से होती है, क्योंकि उत्पत्ति में सभी जीव अबिरत (असंयमी) होते हैं / 2 // इकतालीसा शतक : राशियुग्मशतक में प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण-युक्त) भा. 3, पृ. 1174 2. भगवती, प्र. वृत्ति, पत्र 978-979 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org