________________ तृतीय शतक : उद्देशक-७ [ 371 अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई प्रायाम-विक्खंभेणं, ऊयालीयं जोयणसयसहस्साई बावण्णं च सहस्साई अटु य अडयाले जोयणसए किचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं प० / जा सूरियाभविमाणस्स क्त्तव्वया सा अपरिसेसा भाणियब्वा जाव अभिसेयो नवरं सोमे देवे। [4-1 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल सोम नामक महाराज का सन्ध्याप्रभ नामक महाविमान कहाँ है ? [4-1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर (मेरु) पर्वत से दक्षिण दिशा में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहु सम भूमि भाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप (तारे) आते हैं / उनसे बहुत योजन ऊपर यावत् पांच अवतंसक कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं--अशोकावतंसक, सप्तपर्णावतंसक, चम्पकावतंसक, चूतावतंसक और मध्य में सौधर्मावतंसक है। उस सौधर्मावतंसक महाविमान से पूर्व में, सौधर्मकल्प से असंख्य योजन दूर जाने के बाद, वहाँ पर देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल--सोम नामक महाराज का सन्ध्याप्रभ नामक महाविमान आता है, जिसकी लम्बाई-चौडाई साढे बारह लाख योजन है। उसका परिक्षेष (परिधि) उनचालीस लाख बावन हजार आठ सौ अड़तालीस (3952848) योजन से कुछ अधिक है। इस विषय में सूर्याभदेव के विमान की जो वक्तव्यता है, वह सारी वक्तव्यता (राजप्रश्नीयसूत्र में वणित) 'अभिषेक' तक कह लेनी चाहिए / इतना विशेष है कि यहाँ सूर्याभदेव के स्थान में 'सोमदेव' कहना चाहिए। [2] संझप्पभस्स णं महाविमाणस्स आहे सपक्खिं सपडिदिसि असंखेज्जाइं जोयणसयसहसाइं प्रोगाहित्ता एस्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारष्णो सोमा नाम रायहाणी पण्णत्ता, एग जोयणसयसहस्सं पायाम-विक्खंभेणं जंबुद्दीवपमाणा। [4-2] सन्ध्याप्रभ महाविमान के सपक्ष-सप्रतिदेश, अर्थात्-ठीक नीचे, असंख्य लाख योजन आगे (दूर) जाने पर देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल सोम महाराज की सोमा नाम की राजधानी है, जो एक लाख योजन लम्बी-चौड़ी है, और जम्बूद्वीप जितनी है / [3] बेमाणियाणं घमाणस्स अद्ध नेयव्य जाव उवरियलेणं सोलस जोयणसहस्साई प्रायामविक्खंभेणं, पण्णासं जोयणसहस्साई पंच य सत्ताणउए जोयणसते किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते / पासायाणं चत्तारि परिवाडीमो नेयवानो सेसा नस्थि / [4-3] इस राजधानी में जो किले प्रादि हैं, उनका परिमाण वैमानिक देवों के किले आदि के परिमाण से आधा कहना चाहिए। इस तरह यावत् धर के ऊपर के पीठबन्ध तक कहना चाहिए। घर के पीठबन्ध का आयाम (लम्बाई) और विष्कम्भ (चौडाई) सोलह दजार योजन | उसका परिक्षेप (परिधि) पचास हजार पांच सौ सत्तानवे योजन से कुछ अधिक कहा गया है। प्रासादों की चार परिपाटियाँ कहनी चाहिए, शेष नहीं। [4] सक्कस्स णं देविदस्स देवरणो सोमस्स महारण्णो इमे देवा प्राणा-उववाय-वधण-निद्दे से चिट्ठति, तं जहा-सोमकाइया ति वा, सोमदेवयकाइया ति वा, विज्जुकुमारा विज्जकुमारीप्रो, अग्गिकुमारा अग्गिकुमारीग्रो, बाउकुमारा बाउकुमारीनो, चंदा सूरा गहा नक्खत्ता तारारूवा, जे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org