________________ बारहवां शतक : उद्देशक 6] [191 हे गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्रमा और सूर्य इस प्रकार के कामभोगों का अनुभव करते हुए विचरते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर भगवान् गौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर को (वन्दना-नमस्कार करके) यावत् विचरण करते हैं। - विवेचन देवों के कामभोगों का सुख-यहां चन्द्रमा और सूर्य के कामभोगों को दूसरे देवों से अनन्तगुण-विशिष्टतर बताने के लिए तारतम्य बताया गया है। उपमा और कामसुखों का तारतम्य--ज्योतिष्केन्द्र चन्द्रमा और सूर्य के कामभोगों को उस नवविवाहित से उपमित किया गया है, जो सोलह वर्ष तक प्रवासी रह कर धनसम्पन्न होकर घर लौट अाया हो, सर्वथा वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो षडरस-व्यंजन युक्त भोजन करके शयनगृह में मनोज्ञ कान्त कामिनी के साथ मानवीय शब्दादि कामभोगों का सेवन करता हो। देवों के कामभोग-सुखों का तारतम्य बताते हुए कहा गया है—(१) पूर्वोक्त नवविवाहित के कामसुखों से वाणव्यन्तर देवों के कामसुख अनन्तगुणविशिष्ट हैं / (2) उनसे असुरेन्द्र को छोड़ कर भवनपतिदेवों के कामसुख अनन्तगुणविशिष्टतर हैं. (3) असुरेन्द्र के सिवाय शेष भवनपतिदेवों के कामसुखों से असुरकुमार देवों के कामसुख अनन्तगुणविशिष्टतर हैं, (4) उनके कामसुखों से ग्रह-नक्षत्र तारारूप ज्योतिष्कदेवों के कामसुख अनन्तगुणविशिष्टतर हैं और (5) उन सबसे ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र सूर्य के कामभोग अनन्तगुणविशिष्टतम होते हैं।' कामसुख उदारसुख क्यों ? यहाँ कामभोगों के सुख को उदारसुख कहा गया है, वह मोक्ष सुख या आत्मिकसुख की अपेक्षा से नहीं, किन्तु सामान्य सांसारिक जनों के वैषयिक सुखों की अपेक्षा से कहा गया है / वास्तव में कामभोग सम्बन्धी सुख, सुख नहीं, सुखाभास है, क्षणिक है, तुच्छ है, एक तरह से दुःख का कारण है। कठिन शब्दों के प्रर्थ-पढमजोग्यणुशाणबलत्थाए--प्रथम यौवन के उत्थान-उद्गम में जो बलिष्ठ (प्राणवान ) है / अणुरत्ताए-अनुरागवती, अविरत्ताए-अप्रिय करने पर भी जो पति से विरक्त न हो। विउसमण-कालसमयंसि-पुरुषवेद (काम) विकार के उपशमन के समय में अर्थात्रतावसान में / पच्चभवमाणा-अनुभव करते हुए / अोरालं उदार, विशाल / ' // बारहवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त / / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 595-596 2. भगवतीमूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2070 3, (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 571 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) प्रा. 4, पु. 2068 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org