________________ चतुर्थ शतक : उद्देशक-१०] और रुक्ष हैं, तथा दुर्गति की कारण हैं / तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीन लेश्याएँ शुद्ध, प्रशस्त, असंक्लिष्ट, उष्ण और स्निग्ध हैं, तथा सुगति की कारण हैं। परिणाम-प्रदेश-वर्गणा- प्रवगाहना. स्थानादि द्वार-लेश्याओं के तीन परिणाम-जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट / इनके भी तीन-तीन भेद करने से नौ इत्यादि भेद होते हैं / प्रत्येक लेश्या अनन्त प्रदेशवाली है। प्रत्येक लेश्या की अवगाहना असंख्यात अाकाश प्रदेशों में है। कृष्णादि छहों लेश्याओं के योग्य द्रव्यवर्गणाएं औदारिक प्रादि वर्गणाओं की तरह अनन्त हैं। तरतमता के कारण विचित्र अध्यवसायों के निमित्त रूप कृष्णादिद्रव्यों के समह असंख्य हैं क्योंकि अध्यवसायों के स्थान भी असंख्य हैं। अल्पबहत्वद्वार-लेश्याओं के स्थानों का अल्पबहुत्व इस प्रकार है--द्रव्यार्थरूप से कापोतलेश्या के जघन्य स्थान सबसे थोड़े हैं, द्रव्यार्थरूप से नीललेश्या के जघन्य स्थान उससे असंख्य गुणे हैं, द्रव्यार्थरूप से कृष्ण लेश्या के जघन्य स्थान असंख्यगुथे हैं, द्रव्यार्थरूप से तेजोलेश्या के जघन्य स्थान उससे असंख्य गुणे हैं और द्रव्यार्थरूप से पद्मलेश्या के जघन्य स्थान उससे असंख्य गुणे हैं और द्रव्यार्थरूप से शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान उससे भी असंख्यगुणे हैं / इत्यादिरूप से सभी द्वारों का वर्णन प्रज्ञापनासूत्रोक्त लेश्याषद के चतुर्थ उद्दे शक के अनुसार जानना चाहिए।' // चतुर्थ शतक : दशम उद्देशक समाप्त // चतुर्थ शतक सम्पूर्ण 1. (क) देखिये--प्रज्ञापना० मलयगिरि टीका, पद 17, उ. 4 में परिणामादि द्वार की व्याख्या / (ख) भगवती सूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक 205-206 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org