________________ नवम शतक : उद्देशक-३३ ] की इस (उपर्युक्त) बात पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि की, वे जमालि अनगार को प्राश्रय करके (निश्राय में) विचरण करने लगे और जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार की इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की, वे जमालि अनगार के पास से, कोष्ठक उद्यान से निकल गए और अनुक्रम से विचरते हुए एवं नामानुग्राम विहार करते हुए, चम्पा नगरी के बाहर जहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास पहुँचे / उन्होंने श्रमण भगवान महावीर की तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, फिर वन्दनानमस्कार करके वे भगवान् का आश्रय (निश्राय) स्वीकार कर विचरने लगे। विवेचन-जमालि के सिद्धान्त का स्वीकार : अस्वीकार-प्रस्तुत सूत्र 18 में बताया गया है कि जमालि की जिनवचन विरुद्ध प्ररूपणा पर जिन साधुओं ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि की, वे उसके पास रहे और जिन साधुनों ने जमालि-प्रतिपादित सिद्धान्त पर श्रद्धा न की, वे वहाँ में विहार करके भगवान् की सेवा में लौट गए। 'चलमान चलित': भगवान का सिद्धान्त है इसका सयुक्तिक विवेचन भगवतीसूत्र के प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक में कर दिया गया है / जमालि अनगार ने इस सिद्धान्त के विरुद्ध एकान्तदृष्टि से प्ररूपणा की, इसलिए यह सिद्धान्त अयथार्थ है। इसका विशेष विवेचन विशेषावश्यकभाष्य विशेषार्थ-चलमाणे चलिए-'जो चल रहा हो, वह 'चला।' उवसंपज्जित्ताणं-आश्रय करके (निश्राय में)। अत्थेगइया--कोई-कोई-कितने ही। जमालि द्वारा सर्वज्ञता का मिथ्या दावा 98. तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयाइ ताओ रोगायंकाओ विष्पमुक्के हो जाए अरोए बलियसरीरे सावत्थीओ नयरीओ कोयाओ चेइयाओ पडिनिवखमइ, पडिनिमित्ता पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं क्यासी-जहा णं देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था भवेत्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवरकंता, णो खलु अहं तहा छउमत्थे भवित्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवक्कते, अहं णं उत्पन्नणाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कते। [18] तदनन्तर किसी समय जमालि अनगार उस (पूर्वोक्त) रोगातंक से मुक्त और हृष्ट (पुष्ट) हो गया, तथा नीरोग और बलवान् शरीर वाला हुआ; तब श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकला और अनुक्रम से विचरण करता हुआ एवं ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, जिसमें कि श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, उनके 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा० 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ० 478 2. (क) भगवतीसूत्र प्रथमखण्ड, श० 1, (युवाचार्य श्री मधुकरमुनि), पृ.१६-१७ (ख) विशेषावश्यकभाष्य, निह्नववाद (ग) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 487-488 3. भगवती० भा० 4 (पं० घेवरचन्दजी), पृ० 1757 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org