________________ चोत्तीसइमं सयं : बारस एगिदिय-सेढि-सयाई चौतीसवाँ शतक : बारह एकेन्द्रिय-श्रेणी-शतक एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद का निरूपरण 1. कतिविहा णं भंते ! एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंचयिहा एगिदिया पन्नता, सं जहा-पुदविकाइया जाव वणस्सतिकाइया / एवमेते वि चउक्कएणं भेएणं भाणियम्वा जाव वणस्सइकाइया / [1 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? / [1 उ.] गौतम ! एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गए हैं। यथा -- पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक / इस प्रकार इनके भी प्रत्येक के चार-चार भेद यावत् वनस्पतिकायिक-पर्यन्त कहने चाहिए। विवेचन--एकेन्द्रिय भेद-प्रभेद को पुनरुक्ति क्यों ? —यहाँ इस शतक में एकेन्द्रिय जीवों की श्रेणी में विषय में निरूपण करने के लिए एकेन्द्रिय के भेद-प्रभेदों का पुन: कथन किया गया है। एकेन्द्रियों की विग्रहगति का विविध दिशात्रों की अपेक्षा समय-निरूपण 2. [1] अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले धरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चथिमिल्ले चरिमते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उवज्जित्तए, से णं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा। [2-1 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिमीय घरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य है, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [2-1 उ.] गौतम वह ! एक समय की, दो समय की अथवा तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [2] से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ-एगसमइएण वा दुसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा ? एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीयो पन्नत्तामओ, तं जहा उज्जुयायता सेढी 1, एगओवंका 2, बुहतोवंका 3, एगतोखहा 4, दुहओखहा 5, चक्कवाला 6, प्रद्धचक्कवाला 7 / उज्जुयायताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, एगओधकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उथवज्जेज्जा, दुहतोवंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। से तेणढ़ेणं गोयमा ! जाय उववज्जेज्जा।१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org