________________ छठा शतक : उद्देशक-८] [85 20. अत्थि णं भंते ! चंदिम ? णो इण8 सम?। 20. प्र.] भगवन् ! क्या वहाँ चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप हैं ? [20 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 21. अस्थि पं भंते ! गामाइ वा०? णो इण8 सम8। [21 प्र.] भगवन् ! क्या वहाँ ग्राम यावत् सन्निवेश हैं ? [21 उ ] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 22. अस्थि गं भंते ! चंदाभा ति वा 2 ? गोयमा ! णो इण? सम? / [22 प्र.] भगवन् ! क्या यहाँ चन्द्राभा, सूर्याभा आदि हैं ? [22 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 23. एवं सणंकुमार-माहिदेसु, नवरं देवो एगो पक रेति / [23] इसी प्रकार सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोकों में भी कहना चाहिए। विशेष यह है कि वहाँ (यह सब) केवल देव ही करते हैं / 24. एवं बंभलोए वि। [24] इसी प्रकार ब्रह्मलोक (पंचम देवलोक) में भी कहना चाहिए / 25. एवं बंमलोगस्स उरि सहि देवो पकरेति / [25] इसी तरह ब्रह्मलोक से ऊपर (पंच अनुत्तर विमान देवलोक तक) सर्वस्थलों में पूर्वोक्त प्रकार से कहना चाहिए / इन सब स्थलों में केवल देव ही (पूर्वोक्त कार्य) करते हैं / 26. पुच्छियब्वे य बादरे पाउकाए, बादरे तेउकाए, बायरे वणस्सतिकाए / अन्नं तं चेव / गाहा तमुकाए कप्पपणए अगणी पुढवी य, अगणि पुढवीसु / पाऊ-तेउ-वणस्तति कप्पुरिम-कण्हराईसु // 1 // [26 प्र. 3] इन सब स्थलों में बादर अप्काय, बादर अग्निकाय, और बादर वनस्पतिकाय के विषय में प्रश्न (पृच्छा) करना चाहिए / उनका उत्तर भी पूर्ववत् कहना चाहिए।) अन्य सब बातें पूर्ववत् कहनी चाहिए। [गाथा का अर्थ- तमस्काय में और पांच देवलोकों तक में अग्निकाय और पृथ्वीकाय के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिए / रत्नप्रभा आदि नरकश्चियों में अग्निकाय के सम्बन्ध में प्रश्न करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org