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________________ दशम शतक : उद्देशक-१] [583 . अथवा एकेन्द्रियों के बहुत देश और बहत द्वीन्द्रियों के बहुत देश हैं 3. (ये तीन भंग हैं, इसी प्रकार) एकेन्द्रियों के बहुत देश और एक त्रीन्द्रिय का एक देश है 1, इसी प्रकार से पूर्ववत् त्रीन्द्रिय के साथ तीन भंग कहने चाहिए। इसी प्रकार यावत् अनिन्द्रिय तक के भी क्रमश: तीन-तीन भंग कहने चाहिए / इसमें जीव के जो प्रदेश हैं, वे नियम से एकेन्द्रियों के प्रदेश हैं / अथवा एकेन्द्रियों के बहुत प्रदेश और एक द्वीन्द्रिय के बहत प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रियों के बहुत प्रदेश और बहत द्वीन्द्रियों के बहुत प्रदेश हैं / इसी प्रकार सर्वत्र प्रथम भंग को छोड़ कर दो-दो भंग जानने चाहिए; यावत् अनिन्द्रिय तक इसी प्रकार कहना चाहिए। अजीवों के दो भेद हैं। यथा--रूपी अजीव और अरूपी अजीव / जो रूपी अजीव हैं, वे चार प्रकार के हैं। यथा स्कन्ध से लेकर यावत परमाणु पुद्गल तक / अरूपी अजीव सात प्रकार के हैं। यथा-धर्मास्तिकाय नहीं, किन्तु धर्मास्तिकाय का देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय नहीं, किन्तु अधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय नहीं, किन्तु आकाशास्तिकाय का देश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय (काल)। (विदिशाओं में जीव नहीं है, इसलिए सर्वत्र देश-प्रदेश-विषयक भंग होते हैं।) __ आग्नेयो विदिशा का स्वरूप-आग्नेयी विदिशा जीवरूप नहीं है, क्योंकि सभी विदिशाओं की चौड़ाई एक-एक प्रदेशरूप है। वे एकप्रदेशी ही निकली हैं और अन्त तक एकप्रदेशी ही रही हैं और एक प्रदेश में समग्न जीव का समावेश नहीं हो सकता, क्योंकि जीव की अवगाहना असंख्यप्रदेशात्मक है।" जीवदेश सम्बन्धी भंगजाल-एकेन्द्रिय सकललोकव्यापी होने से प्राग्नेयी दिशा में नियमतः एकेन्द्रिय देश तो होते ही हैं। अथवा एकेन्द्रिय सकललोकव्यापी होने से और द्वीन्द्रिय अल्प होने से कहीं एक की भी संभावना है। इसलिए कहा गया—एकेन्द्रियों के बहुत देश और एक द्वीन्द्रिय का देश, इस प्रकार द्विकसंयोगी प्रथम भंग हुमा / यो तीन भंग होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के . साथ तीन-तीन भंग होते हैं / 10. जम्मा गं भंते ! दिसा कि जीवा? जहा इंदा (सु. 8) तहेव निरवसेसं / (10 प्र.] भगवन् ! याम्या (दक्षिण)-दिशा क्या जीवरूप है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [10 उ.] (गौतम ! ) ऐन्द्रीदिशा के समान सभी कथन (सू. 8 में उक्त) जानना चाहिए / 11. नेरई जहा अग्गेयी (सु. 9) / [11] नैऋती विदिशा का (एतद्विषयक समग्र) कथन (सू. 6 में उक्त) आग्नेयी विदिशा के समान जानना चाहिए। 12. वारुणी जहा इंदा (सु. 8) / [12] वारुणी (पश्चिम)-दिशा का (इस सम्बन्ध में कथन) (सू. 8 में उक्त) ऐन्द्रीदिशा के समान जानना चाहिए। 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 494 2 वही, पत्र 494 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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