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________________ 582] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-दिशा-विदिशात्रों का आकार एवं व्यापकत्व -पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, ये चारों महादिशाएँ गाड़ी (शकट) की उद्धि (प्रोढण) के आकार की हैं और आग्नेयी, नैऋती, वायव्या और ऐशानी ये चार विदिशाएँ मुक्तावली (मोतियों की लड़ी) के आकार की हैं / ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा रुचकाकार हैं, अर्थात् मेरुपर्वत के मध्यभाग में 8 रुचकप्रदेश हैं, जिनमें से चार ऊपर की ओर और चार नीचे की ओर गोस्तनाकार हैं। यहाँ से दस दिशाएँ निकलो हैं / पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, ये चारों दिशाएँ मूल में दो-दो प्रदेशी निकली हैं और आगे दो-दो प्रदेश की वृद्धि होती हुई लोकान्त तक एवं प्रलोक में चली गई हैं। लोक में असंख्यात प्रदेश तक और अलोक में अनन्त प्रदेश तक बढ़ी हैं। इसलिए इनकी प्राकृति गाड़ी के प्रोढण के समान है / चारों विदिशाएँ एक-एक प्रदेश वाली निकली हैं और लोकान्त तक एकप्रदेशी ही चली गई हैं / ऊर्ध्व और अधोदिशा चार-चार प्रदेशी निकली हैं और लोकान्त तक एवं अलोक में भी चली गई हैं / पूर्वदिशा जीवादिरूप है किन्तु वहाँ समग्र धर्मास्तिकायादि नहीं, किन्तु धर्म, अधर्म एवं आकाश का एक देशरूप और र असंख्यप्रदेशरूप हैं तथा अद्धा-समयरूप है। इस प्रकार अरूपी अजीवरूप सात प्रकार की पूर्वदिशा है।' 9. अग्गेयी णं भंते ! दिसा कि जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा० पुच्छा। गोयमा ! णो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि / जे जीवदेसा ते नियमं एगिदियदेसा। अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे 1, अहवा एगिदियदेसा बेइंदियस्स देसा 2, अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा 3 / अहवा एगिदियदेसा य तेइंदियस्स देसे, एवं चेव तियभंगो भाणियव्यो। एवं जाव अणिदियाशं तियभंगो / जे जीवपदेसा ते नियमा एगिदियपदेसा। अहवा एगिदियपदेसा य बेइंदियस्स पदेसा, अहवा एगिदियपदेसा य बेइंदियाण य पएसा / एवं आदिल्लविरहिओ जाव अणिदियाणं।। जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--रूविअजीवा य अरूविअजीवा य। जे रूविअजीवा ते चविहा पण्णत्ता, तं जहा–खंधा जाव' परमाणुयोग्गला 4 / जे अरूविअजीचा ते सतविधा पण्णता, तं जहा--नो धम्मत्थिकाये, धम्मस्थिकायस्स देसे 1 धम्मस्थिकायस्स पदेसा 2; एवं अधम्मत्थिकायस्स वि 3.4; एवं आगासस्थिकायस्स वि जाव आगासस्थिकायस्स पदेसा 5-6; अद्धासमये 7 / [प्र.| भगवन् आग्नेयी दिशा क्या जीवरूप है, जीवदेशरूप है, अथवा जीवप्रदेशरूप है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! वह (आग्नेयीदिशा) जीवरूप नहीं, किन्तु जीव के देशरूप है, जीव के प्रदेशरूप भी है, तथा अजीवरूप है और अजीव के प्रदेशरूप भी है। इसमें जीव के जो देश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, अथवा एकेन्द्रियों के बहुत देश और द्वीन्द्रिय का एक देश है 1, अथवा एकेन्द्रियों के बहुत देश एवं द्वीन्द्रियों के बहुत देश हैं 2, 1. “सगडुद्धिसंठियाओ महादिसाओ हवंति चत्तारि / मुत्तावलीव चउरो दो चेव य होति रुयनिभे // -भगवती. अ. वत्ति, पत्र 494 2. 'जाव' पद-सूचित पाठ-"खंधदेसा, खंधपएसा / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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