________________ तेतीसा शतक : उद्देशक 1-11] [6 उ.] गौतम ! इसी अभिलाप से औधिक उद्देशक के समान 'वेदते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 7. कतिविधा णं भंते अणंतरोववनगा कण्हलेस्सा भवसिद्धीया एगिदिया पन्नता ? गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नगा जाव वणस्सतिकाइया / नन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? [7 उ.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय पाँच प्रकार के कहे हैं / यथा--पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक / 8. अणंतरोक्वनगकण्हलेस्सभवसिद्धीयपुढविकाइया णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सुहमपुढविकाइया य, बायरपुढविकाइया य / [8 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक पृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे हैं ? पृथ्वीकायिक [8 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे हैं / यथा-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादर 6. एवं दुपयो भेदो। [[] इसी प्रकार अप्कायिक प्रादि के भी दो-दो भेद कहने चाहिए। 10. अणंतरोक्वन्नगकण्हलेस्सभव सिद्धोयसुहमढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मपगडीओ पन्नत्तामो? एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिरो अणंतरोववन्नो उद्देसनो तहेव जाव वेदेति / [10 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथ्वीकायिकों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [10 उ.] गौतम ! यहाँ भी इसी अभिलाप से अनन्तरोपपन्नक के औधिक उद्देशक के अनुसार, यावत् 'वेदते हैं। यहाँ तक कहना चाहिए / 11. एवं एतेणं अभिलावणं एक्कारस वि उद्देसगा तहेव भाणियन्वा जहा ओहियसए जाव प्रचरिमो ति। // छठे एगिदियसए : पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा समत्ता // 6 // 1.11 // ॥तेत्तीसइमे सए : छठें एंगिदियसतं समत्तं // 33-6 // [11] इसी प्रकार इसी अभिलाप से, औधिक शतक के अनुसार, पूर्ववत् ग्यारह ही उद्देशक यावत् 'अचरमउद्देशक' पर्यन्त कहने चाहिए। ॥छठा एकेन्द्रियशतक : एक से लेकर ग्यारह उद्देशक-पर्यन्त समाप्त / / // तेतीसवां शतक : छठा एकेन्द्रियशतक सम्पूर्ण / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org