________________ तेतीसवां शतक : उद्देशक 1] 6. तहेव वेदेति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // तेतीसइमे सए : विइए एगिदिय-सए : पढमो उद्देसनो समत्तो // 33 // 2 // 1 // 16] उसी प्रकार वे (कर्मप्रकृतियाँ) वेदते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन कृष्णलेश्यो एकेन्द्रिय के लिए औधिक उद्देशक का प्रतिदेश-प्रस्तुत प्रकरण में कृष्णलेश्यो एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद, उनमें पाई जाने वाली कर्मप्रकृतियाँ तथा उनके बन्ध और वेदन के समग्र कथन का प्रथम अवान्तरशतक के प्रथम (औधिक) उद्देशक के अनुसार अतिदेश किया गया है।' // तेतीसवाँ शतक : दूसरा अवान्तर एकेन्द्रियशतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // -..---.-- - 1. वियाहपण्णन्तिसुत्तं, भा. 3, पृ. 1119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org