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________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] सहित द्रव्यों की परस्परबद्धता, गाढ़ श्लिष्टता, स्पृष्टता एवं अन्योन्यसम्बद्धता का प्रतिपादन किया गया है।' सवर्णादि एवं अवर्णादि का आशय----वर्णादि-सहित का अर्थ है—पुद्गलद्रव्य तथा वर्णादिरहित का प्राशय है-धर्मास्तिकाय प्रादि / अन्नमन्त्रघडत्ताए चिट्ठति-परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।' भगवान् का निर्णय सुन कर जनता द्वारा सत्यप्रचार 27. तए णं हस्थिणापुरे नगरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाय परूवेइ ---"जं णं देवाणुप्पिया! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव परवेइ--अस्थि णं देवाणुप्पिया! मम प्रतिसेसे नाण जाव समुद्दा य, तं नो इणठे समठे। समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव परूवेइ एवं खलु एयस्स सिक्स्स रायरिसिस्स छठंछठेणं तं चेव जाव भंडनिक्खेवं करेति, भंड० क० 2 हत्थिणापुरे नारे सिंघाडग जाव समुद्दा य / तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एवमट्ठ सोच्चा निसम्म जान समुद्दा य, तं गं मिच्छा' / समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खति-एवं खलु जंबुद्दीवाईया दीवा लवणाईया समुद्दा तं चेव जाव प्रसंखेज्जा दीव-समुद्दा पण्णत्ता समणाउसो!। [27] (भगवान महावीर के मुख से शिवराजर्षि के ज्ञान के विषय में सुनकर) हस्तिनापुर नगर में शृगाटक यावत् मार्गों पर बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने यावत् (एक दूसरे को) बतलाने लगे हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि जो यह कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं जानता-देखता हूँ कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं, इसके आगे द्वीप-समुद्र बिलकुल नहीं हैं, उनका यह कथन मिथ्या है। श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार कहते, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि निरन्तर बेले-बेले का तप करते हुए शिवराजर्षि को विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ है। विभंगज्ञान उत्पन्न होने पर वे अपनी कुटी में आए यावत वहाँ से तायम आश्रम में आकर अपने तापसोचित उपकरण रक्खे और हस्तिनापुर के शृगाटक यावत् राजमार्गों पर स्वयं को अतिशय ज्ञान होने का दावा करने लगे। लोग (उनके मुख से) ऐसी बात सुन परस्पर तर्कवितर्क करते हैं "क्या शिवराजर्षि का यह कथन सत्य है ? परन्तु मैं कहता हूँ कि उनका यह कथन मिथ्या है।" श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार कहते हैं कि वास्तव में जम्बूद्वीप आदि तथा लवण समुद्र आदि गोल होने से एक प्रकार के लगते हैं, किन्तु वे एक दूसरे से उत्तरोत्तर द्विगुण-द्विगुण होने से अनेक प्रकार के हैं / इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो ! (लोक में) द्वोप और समुद्र असंख्यात हैं। विवेचन-जनता द्वारा महावीरप्ररूपित सत्य का प्रचार–प्रस्तूत सूत्र (27) में वर्णन है कि हस्तिनापुर की जनता ने भगवान महावीर से शिवराजर्षि को उत्पन्न हुए विभंगज्ञान के विषय में सुना तो वह उस सत्य का प्रचार करने लगी। 1. विवाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 5.24 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 521 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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