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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२ ] [3-2 उ.] गौतम ! उदीर्ण (दुःख-कर्म) को भोगते हैं, अनुदीर्ण को नहीं भोगते इस कारण ऐसा कहा गया है कि किसी कर्म को भोगते हैं, किसी को नहीं भोगते / इसी प्रकार यावत् नैरपिक से लेकर वैमानिक तक चौबीस (सभी) दण्ड को के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर समझ लेना चाहिए / आयु-वेदन सम्बन्धो चर्चा 4. जोवे णं भंते ! सयंकडं आउयं वेदेति ? गोयमा ! अगइयं वेदेति जहा दुषखेणं दो दंडगा तहा पाउएण वि दो दंडगा एगत्तपोहत्तिया; एगत्तेणं जाव वेमागिया, पुहत्तेण वि तहेव / [4. प्र. भगवन् ! क्या जीव स्वयंकृत प्रायु को भोगता है ? [4. उ.] हे गौतम ! किसी को भोगता है, किसी को नहीं भोगता / जैसे दुःख-कर्म के विषय में दो दण्डक कहे गए हैं, उसी प्रकार आयुष्य (कर्म) के सम्बन्ध में भी एकवचन और बहुवचन वाले दो दण्डक कहने चाहिए। एकवचन से यावत् वैमानिकों तक कहना, इसी प्रकार बहुवचन से भी (वैमानिकों तक) कहना चाहिए। विवेचन—स्वकृत दुःख एवं प्रायु के वेदनसम्बन्धी प्रश्नोत्तर-द्वितीय उद्देशक के द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ सूत्रों में स्वयंकृत दुःख (कर्म) एवं प्रायुष्य कर्म के वेदन के सम्बन्ध में एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर अंकित हैं। स्वकर्तृक कर्म-फल भोग सिद्धान्त-श्री गौतमस्वामी ने जो ये प्रश्न उठाए हैं, इनके पीछे पांच प्रान्त मान्यताओं का निराकरण भित है। उस यग में ऐसी मिथ्या मान्यताएँ प्रचलित थी कि (1) कर्म दूसरा करता है, फल दूसरा भोग सकता है; (2) ईश्वर या किसी शक्ति को कृपा हो तो स्वकृत दुःख जनक अशुभ कर्म का फल भोगना नहीं पड़ता, (3) परमाधार्मिक नरकपाल आदि 'पर' के निमित्त से नारक आदि जीवों को दुःख मिलता है, (4) अथवा वस्त्रभोजनादि पर-वस्तुओं या अन्य व्यक्तियों से मनुष्य को दुःख या सुख मिलता है, और (5) दूसरे प्राणी से आयु ली जा सकती है और दूसरे को दी जा सकती है। अगर दूसरे के द्वारा किये हुए कर्म (मुख्यतः असातावेदनीय और मायु) का फल यदि दूसरा भोगने लगे तो किये हुए कर्म बिना फल दिये हुए नष्ट हो जाएँगे और जो कर्म नहीं किये हए है, वे गले पड़ जाएंगे। इससे लोकोत्तर व्यवहार जैसे गड़बड़ में पड़ जाएंगे, वैसे लौकिक व्यवहार भी गड़बड़ में पड़ जाएँगे / जैसे—यज्ञदत्त के भोजन करने. नित औषधसेवन करने आदि कर्म से यज्ञदत्त की क्षुधा, निद्रा और व्याधि का क्रमशः निवारण हो जाएगा, परन्तु ऐसा होना असम्भव है / परवस्तु या परव्यक्ति तो सुख या दुःख में मात्र निमित्त बन सकता है, किन्तु वह कर्मकर्ता के बदले में सुख या दुःख नहीं भोग सकता और न ही सुख या दुःख दे सकता है, प्राणी स्वयं ही स्वकृतकर्म के फलस्वरूप सुख या दुःख भोगता है। आयुष्यकर्म का फल भी एक के बदले दूसरा नहीं भोग सकता। इसलिए स्वकतृक कर्मफल का स्वयं वेदनरूप सिद्धान्त अकाट्य है / ' हाँ, जिस साता-असातावेदनीय आदि या आयुष्यकर्म का फल कदाचित् वर्तमान में नहीं 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 38 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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