________________ 94] [আত্মাসম্বলি [52] तत्पश्चात् वह महाबल कुमार (श, 6, उ. 33, सू. 22 में कथित) जमालि कुमार के वर्णन के अनुसार उन्नत श्रेष्ठ प्रासाद में अपूर्व (इन्द्रियसुख) भोग भोगता हुअा जीवनयापन करने लगा। विवेचन--आठ नववधुओं को बल राजा तथा महाबल कुमार की ओर से प्रीतिदान -प्रस्तुत दो सूत्रों—(५१-५२) में 8 नववधुओं को बल राजा तथा महाबल कुमार की ओर से दिये गये प्रचुर प्रीतिदान का वर्णन है / 52 वें सूत्र में महाबल कुमार का अपने प्रासाद में सुखभोगपूर्वक . निवास का वर्णन है।' __कठिन शब्दों का अर्थ-कडगजोए-कड़ों की जोड़ी। किंकरे-अनुचर / सिरिघर --श्रीघर–भण्डार के समान / भीसियाओ-आसनविशेष / वणगपेसीमो—सुगन्धित चूर्ण (पाउडर) बनाने वाली। पसाहियाओ-प्रसाधन (शृगार) करने वाली। तेल्लसमुग्गे तेल के डिब्बे / दवकारीओ परिहास करने वाली / धर्मघोष अनगार का पदार्पण, परिषद् द्वारा पर्युपासना 53. तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे नामं अणगारे जातिसंपन्ने वण्णओ जहा केसिसामिस्स जाव पंचहि अणगारसहि सद्धि संपरिवुड़े पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगाम इतिज्जमाणे जेणेव हथिणापुरे नगरे जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उबागच्छति, उवा० 2 अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हति, ओ० 2 संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विरहति / 53] उस काल और उस समय में तेरहवें तीर्थंकर अर्हन्त विमलनाथ के प्रपौत्रक (प्रशिष्य - शिष्यानुशिष्य) धर्मघोष नामक अनगार थे / वे जातिसम्पन्न इत्यादि (राजप्रश्नीय स्वामी के समान थे, यावत् पांच सौ अनगारों के परिवार के साथ अनुक्रम से एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्रवन उद्यान में पधारे और यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। 54. तए णं हथिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिय जाव परिसा पज्जुबासति / [54] हस्तिनापुर नगर के शृगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग मुनि-आगमन * की परस्पर चर्चा करने लगे यावत् जनता पर्युपासना करने लगी। विवेचन धर्मघोष अनगार का पदार्पण और हस्तिनापुरनिवासियों द्वारा उपासना–प्रस्तुत दो (53-54) सूत्रों में धर्मधोष अनगार का पांच सौ शिष्यों सहित हस्तिनापुर में पदार्पण का तथा जनता द्वारा दर्शन-वन्दना एवं उपासना का वर्णन है / पओप्पए-प्रपौत्रशिष्य-शिष्यानुशिष्य / 3 1. वियाहपण्णत्तिसत्तं भा. 2, पृ. 550-551 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 547-548 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 548 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org