________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [483 |184 प्र.| भगवन् ! छेदोपस्थापनीयसंयत एक समय में कितने होते हैं ? {184 उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वे कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक दो या तीन और उत्कृष्ट शत-पृथक्त्व होते हैं। पूर्वप्रतिपन्न कदाचित नहीं भी होते। यदि होते हैं तब जघन्य कोटिशतपृथक्त्व तथा उत्कृष्ट भी कोटिशतपृथक्त्व होते हैं। 185. परिहारविसुद्धिया जहा पुलागा (उ० 6 सु० 226) / [185] परिहारविशुद्धिकसंयतों की संख्या (उ. 6, सू. 226 में उक्त) पुलाक के समान है। 186. सुहमसंपरागा जहा नियंठा (उ० 6 सु० 233) / [186] सूक्ष्मसम्परायसंयतों की संख्या (उ. 6, सू. 233 में उक्त) निर्गन्थों के अनुसार होती है। 187. अहमखायसंजता णं० पुच्छा। - गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नत्थि / जदि अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि बा, उक्कोसेणं बावट्ठ सयं-अठ्ठत्तरसयं खवगाणं, चउप्पन्न उवसामगाणं / पुवपडिवनए पडुच्च जहन्नेणं कोडिपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिपुहत्तं / [दारं 35] / [187 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत एक समय में कितने होते हैं ? [187 उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वे कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट 162 ( एक सौ बासठ) होते हैं। जिनमें से 108 क्षपक और 54 उपशमक होते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कोटिपृथक्त्व होते हैं। विवेचन-संयतों को संख्या-विषयक स्पष्टीकरण–परिमाणद्वार में छेदोपस्थापनीयसंयतों का जो उत्कृष्ट परिमाण बताया है, वह प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ की अपेक्षा सम्भवित होता है। किन्तु जघन्य परिमाण यथार्थरूप से समझ में नहीं आता, क्योंकि पंचम पारे के अन्त में भरतादि दस क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्र में दो-दो संयत होने से जघन्य बीस छेदोपस्थापनीयसंयत होते हैं / किसी प्राचार्य का मत है कि जधन्य परिमाण भी प्रथम तीर्थंकर की अपेक्षा से समझना चाहिए, ऐसा टीकाकारों का अभिप्राय है / जघन्य परिमाण यहाँ जो कोटिशतपृथक्त्व बताया है उसका परिमाण अल्प है और जो उत्कृष्ट कोटिशतपृथक्त्व परिमाण बताया है उसका परिमाण अधिक समझना चाहिए / प्रतिपद्यमान यथाख्यातसंयत एक समय में उत्कृष्ट 162 होते है, उनमें से १०८क्षपक होते हैं। क्षपकश्रेणी वाले सभी मोक्ष जाते हैं, एक समय में 108 से अधिक मोक्ष नहीं जा सकते और एक समय में क्षपक यथाख्यातसंयतों की उत्कृष्ट संख्या 108 ही होती है। उसी समय उपशमक यथाख्यातसंयतों की संख्या 54 होती है, क्योंकि जीव का स्वभाव ही ऐसा है / इस प्रकार एक समय में यथाख्यातसंयतों की उत्कृष्ट संख्या 162 घटित होती है।' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 918 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org