________________ 468] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उवागच्छामि / तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते ममं एवं वयासी—'एयं खलु आणंदा ! इतो चिरातीमाए अद्धाए केयि उच्चावया वणिया०, एवं तं चेव जाव सम्वं निरवसेसं भाणियब्वं जाव नियगनगरं साहिए / तं गच्छ णं तुमं आणंदा ! तव धम्मायरियस्स धम्मोव० जाव परिकहेहि' / तं पभू णं भंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासि करेत्तए ? विसए णं भंते ! गोसालस्स मंलिपुत्तस्स जाव करेत्तए ? समत्थे णं भंते ! गोसाले जाव करेत्तए ?" "पभू णं पाणंदा ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं जाव करेत्तए, विसए णं पाणंदा ! गोसालस्स जाव करेत्तए, समत्थे णं आणंदा ! गोसाले जाव करेत्तए / नो चेव णं अरहते भगवंते, पारितावणियं पुण करेज्जा / जावतिए णं आणंदा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवतेए एत्तो अणंतगुणविसिट्ठयराए चेव तवतेए अणगाराणं भगवंताणं, खंलिखमा पुण अणगारा भगवंतो। जावइए णं आणंदा ! अणगाराणं भगवंताणं तवतेए एत्तो अणंतगुणविसिट्टयराए चेव तवतेए थेराणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण थेरा भगवंतो। जावतिए णं आणंदा! थेराणं भगवंताणं तक्तेए एत्तो प्रणंतगुणविसिट्टयराए चेव तवतेए मरहंताणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण अरहंता भगवंतो। तं पभू णं आणंदा ! गोसाले मंलिपुत्ते तवेणं तेयेणं जाव करेत्तए, विसए णं आणंवा ! जाव करेत्तए, समत्थे णं आणंदा ! जाव करेत्तए, नो चेव णं अरहते भगवंते, पारियावणियं पुण करेज्जा। तं गच्छ णं तुम आणंदा ! गोयमाईणं समणाणं निग्गंधाणं एयम परिकहेहि-मा णं अज्जो ! तुम्भं केयि गोसालं मखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएतु, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेउ / गोसाले णं मखलिपुत्ते समर्णाहं निग्गंथेहि मिच्छं विपडिवन्ने"। [66] उस समय मंखलिपुत्र गोशालक के द्वारा प्रानन्द स्थविर को इस प्रकार (व्यापारियों की दुर्दशा के दृष्टान्तपूर्वक) कहे जाने पर आनन्द स्थविर भयभीत हो गए, यावत् उनके मन में डर बैठ गया / वह मंखलिपुत्र गोशालक के पास से हालाहला कुम्भकारी की दुकान से निकले और शीघ्र एवं त्वरितगति से श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होकर जहाँ कोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आए / तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन-नमस्कार करके यों बोले- भगवन् ! मैं आज छठ-खमण (बेले के तप) के पारणे के लिए आपकी प्राज्ञा प्राप्त कर श्रावस्ती नगरी में ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षाटन करते हुए जब मैं हालाहला कुम्भारिन की दुकान के पास से होकर जा रहा था, तब मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे देखा और बुला कर कहा–'हे अानन्द ! यहाँ आओ और मेरे एक दृष्टान्त को सुन लो।' मंखलिपुत्र गोशालक के द्वारा यह कहने पर जब मैं हालाहला कुम्भारिन की दुकान में मंखलिपुत्र गोशालक के पास पहुँचा, तब उसने मुझे इस प्रकार कहा---'हे प्रानन्द ! अाज से बहुत काल पहले कई उन्नत और अवनत वणिक इत्यादि समग्र वर्णन पूर्ववत्, यावत्-अपने नगर पहुंचा दिया।' अतः हे प्रानन्द ! तुम जानो और अपने धर्माचार्य, धर्मोपदेशक को यावत् कह देना। (आनन्द स्थविर-) [प्र.] 'भगवन् ! क्या मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज से एक ही प्रहार में कूटाघात के समान जला कर भस्मराशि (राख का ढेर) करने में समर्थ है ? भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह यावत् विषयमात्र है अथवा वह ऐसा करने में समर्थ भी है ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org