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________________ 14] [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र खेल-जल्ल-सिंधाण-परिष्ठापनिकासम्बन्धी प्रसमिति; अथवा मन-अगुप्ति, वचन-अगुप्ति और काय-अगुप्ति; ये सब और इसी प्रकार के जो अन्य शब्द हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं / __विवेचन-धर्मास्तिकाय के विपरीत शब्द : अधर्मास्तिकाय के पर्यायवाची--पूर्वोक्त लक्षण वाले धर्म से विपरीत अधर्म शब्द है, जो जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक है / शेष सब पूर्ववत् समझना चाहिए।' आकाशास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 6. आगासस्थिकायस्स पं० पुच्छा। गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तं जहा-पागासे ति वा, आगासस्थिकाये ति वा, गगणे ति वा, नमे ति का, समे ति वा, विसमे ति का, खहे ति वा, विहे ति वा, वीयी ति वा, विवरे ति वा, अंबरे ति वा, अंबरसे ति वा, छिड्डे ति वा, झुसिरे ति वा, मग्गे ति वा, विमुहे ति वा, अद्दे ति वा, वियद्दे ति वा, आधारे ति वा, वोमे ति वा, भायणे ति वा, अंतरिक्खे ति वा, सामे ति वा, प्रोवासंतरे ति वा, अगमे ति वा, फलिहे ति बा, अणते ति वा, जे यावऽन्ने तहप्पगारा सम्वे ते मागासस्थिकायस्स अभिवयणा / [6. प्र.] भगवन् ! प्राकाशास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गए हैं ? [6. उ.] गौतम ! (आकाशास्तिकाय के) अनेक अभिवचन कहे गए हैं। यथा--माकाश, आकाशास्तिकाय, अथवा गगन, नभ, अथवा सम, विषम, खह (ख), विहायस, वीचि, विवर, अम्बर, अम्ब रस, छिद्र, शुषिर, मार्ग, विमुख, अर्द, व्यर्द,प्राधार, व्योम, भाजन, अन्तरिक्ष, श्याम, अवकाशान्तर, अगम,स्फटिक ओर अनन्त ; ये सब तथा इनके समान और भी अनेक अभिवचन आकाशास्तिकाय के हैं। विवेचन - "प्राकाश' शब्द का निर्वचन--प्रा-मर्यादापूर्वक अथवा अभिविधिपूर्वक सभी अर्थ जहाँ काश को यानी अपने-अपने स्वभाव को प्राप्त हों, वह 'आकाश' है / गगनादि कठिन शब्दों के निर्वचन-गन-जिसमें गमन का अतिशय विषय (प्रदेश) है / नभ-जिसमें भा अर्थात् दीप्ति न हो। सम-जिसमें निम्न-नीची और उन्नत-ऊंची ऊबड़खाबड़ जगह का अभाव हो, वह सम है। विषम-जहाँ पहुँचना दुर्गम हो, वह विषम है / खह-खनन करने और हान---त्याग करने (छोड़ने) पर भी जो रहता है, वह खह / विहायस —विशेषतया जिसका हान-त्याग किया जाता हो / विवर-वरण-आवरण से रहित (विगत)। वोचि-जिसका विविक्त, पृथक् या एकान्त स्वभाव हो / अम्बर--अम्बा (माता) की तरह जननसामर्थ्यशील, अम्बा-जल / उसका दान (राण) देने वाला / अम्बरस-अम्बा-जलरूप रस जिसमें से गिरता हो / छिद्र-छिदछेदन होने पर भी जिसका अस्तित्व रहे वह छिद्र / शुषिर-समुद्रादि से जल शोष कर पुन: दान कर देता हो, उसे शुषिर कहते हैं / मग्गे--मार्ग-आकाश स्वयं पथरूप होने से मार्ग है / विमुख—जिसका कोई मुख-आदि (--सिरा) न हो / अर्द पर्द-जिस पर अर्दन-गमन, विशेषरूप से गमन किया जाए / व्योम-विशेषरूप से पक्षियों एवं मनुष्यों का जिससे अवन-रक्षण होता हो / भाजन-संसार 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 776. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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