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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अणुवउत्ता य / तत्थ णं जे ते अणुवउत्तगा, ते ण जाणंति, ण पासंति, प्राहारेति / (तस्थ गंजे ते उवउत्ता, ते णं जाणंति, पासंति, प्राहारेंति य)।' [6-6 प्र.] भगवन् ! वैमानिकदेव उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते और उनका आहरण करते हैं या नहीं? [9-6 उ.] गौतम ! मनुष्यों के समान समझना चाहिए। विशेष यह है कि वैमानिक देव दो प्रकार के हैं / यथा-मायो-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक / उनमें से जो मायी-मिथ्यादष्टि -उपपन्नक हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं, तथा उनमें से जो अमायी-सम्यग्दृष्टि उपपन्नक हैं, वे भी दो प्रकार के हैं / यथा-अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक / जो अनन्तरोषपन्नक होते हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। तथा जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं। यथा---पर्याप्तक और अपर्याप्तक / उनमें जो अपर्याप्तक हैं, वे उन पुद्गलों को नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। उनमें जो पर्याप्तक हैं, वे दो प्रकार के हैं; यथाउपयोगयुक्त और उपयोगरहित। उनमें से जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते-देखते हैं, किन्तु ग्रहण करते हैं / [तथा जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं। ] विवेचन—निर्जरापुदगलों के जानने-देखने और आहरण करने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर-- प्रस्तुत सूत्र का फलितार्थ यह है कि केवली तो उक्त सूक्ष्म निर्जरापुद्गलों को, जो कि समग्रलोक को व्याप्त करके रहते हैं, जानते हैं, देखते हैं, इसलिए उनके विषय में यहाँ प्रश्न नहीं पूछा गया है / प्रश्न पूछा गया है-छद्मस्थ के जानने आदि के विषय में / जिसके लिए प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें पद के प्रथम इन्द्रिय-उद्देशक का अतिदेश किया गया है। फलितार्थ--छद्मस्थों में भी जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि-उपयोगयुक्त हैं, वे ही सूक्ष्म कार्मण (निर्जरा) पुद्गलों को जानते-देखते हैं, परन्तु जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि के उपयोग से रहित हैं वे नहीं जानते-देखते / यही कारण है कि नैरयिक से लेकर दश भवनपति, पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तक के जीव तथा वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देव विशिष्ट अवधिज्ञानादि उपयोगयुक्त न होने से उक्त सूक्ष्म कार्मण (निर्जरा) पुद्गलों को जान-देख नहीं सकते। __ मनुष्यसूत्र में असंज्ञीभूत एवं अनुपयुक्त मनुष्य सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को जान-देख नहीं सकते किन्तु जो मनुष्य संज्ञीभूत हैं, अर्थात् विशिष्ट अवधिज्ञानी हैं, तथा जो उपयोगयुक्त हैं, वे उन निर्जरा-पुद्गलों को जान-देख सकते हैं / वैमानिक सूत्र में जो वैमानिक देव प्रमायी-सम्यग्दृष्टि हैं, परम्परोपपन्नक हैं, पर्याप्तक हैं -..-...- ..--- - .--..-.-.1. यह पाठ प्रज्ञापनासूत्र का है, किन्तु कई प्रतियों में भगवतीसूत्र के मूलपाठ के रूप में माना गया है / इस सम्बन्ध में दो अभिप्राय वत्तिकार लिखते हैं कि यह पाठ प्रज्ञापनासूत्र से उद्धत किया हुआ है, और प्रज्ञापनासत्र की रचना-शैली प्रायः गौतमस्वामी के प्रश्न और उत्तररूप होने से यहाँ प्रश्नकर्ता माकन्दिकपूत्र होने पर भी श्री गौतमस्वामी को सम्बोधित करके उत्तर दिया गया है। प्रतः ] कोष्ठकान्तर्गत पाठ प्रज्ञापना के उस संलग्न पाठ का ग्रहण किया हुआ समझना चाहिए। दूसरा मत यह है कि प्रश्नकार मान्दिकपुत्र हैं। अतएव 'गौतम' शब्द से यहाँ 'माकन्दिकपुत्र' का ही ग्रहण समझना चाहिए। --सं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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