________________ बारहवां शतक : उद्देशक 2] [127 (वचन श्रवणरसिक) आर्हतों (अर्हन्त-तीर्थंकर के साधुनों) की पूर्व (प्रथम) शय्यातरा (स्थानदात्री) 'जयन्ती' नाम की श्रमणोपासिका थी। वह सुकुमाल यावत् सुरूपा और जीवाजीवादि तत्त्वों की ज्ञाता यावत् विचरती थी। विवेचन --प्रस्तुत चार सूत्रों (1 से 4 तक) में जयन्ती श्रमणोपासिका से सम्बन्धित क्षेत्र एवं व्यक्तियों का परिचय दिया गया है। जैन ऐतिहासिक तथ्य-इस मूलपाठ से भगवान् महावीर के युग की नगरी एवं उस नगरी के तत्कालीन, सहस्रानीक राजा के पौत्र तथा शतानीक राजा एवं मृगावती रानी के पुत्र उदयन नृप की बूमा एवं मृगावती रानी की ननन्द जयंती श्रमणोपासिका का परिचय ऐतिहासिक तथ्य पर प्रकाश डालता है। 'जयन्ती' की प्रसिद्धि-जयन्ती श्रमणोपासिका भगवान महावीर के साधुओं को स्थान (मकान) देने में प्रसिद्ध थी। इसलिए जो साधु पहली वार कौशाम्बी में पाते थे, वे उसी से वसति (ठहरने के लिए स्थान) को याचना करते थे और वह अत्यन्त भक्तिभाव से उन्हें ठहरने के लिए स्थान देती थी। इस कारण वह 'पूर्वशय्यातरा' (पुव्वसेज्जायरी) के नाम से प्रसद्धि थी।' कौशाम्बी—यह उस युग में वत्सदेश की राजधानी एवं मुख्य नगरी थी। इसकी अाधुनिक पहचान इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम में स्थित 'कोसम' गाँव से की है। कठिनशब्दार्थ चे उगस्स-बैशालीराज चेटक का / नत्तुए-नप्ता—नाती, दौहित्र / भातृजाया—भौजाई, भाभी। प्रत्तए-प्रात्मज, पुत्र / भतिज्जए-भतीजा, भाई का पुत्र / धूयापुत्री / पिउच्छा-पिता की बहन वूमा, फूफी 1 सुण्हा-पुत्रवधू / णणंदा-ननद / 3 / सालीसावगाणं अरहताण-भावार्थ-- वैशालिक-विशाला (त्रिशला) का अपत्य -- पुत्र, अर्थात भगवान महावीर / उनके श्रावक अर्थात् भगवद्वचन को जो सुनते और सुनाते हैं,-श्रवण रसिक हैं, उन आर्हत -अर्थात् अर्हदेवों-साधुओं की। जयन्ती श्रमणोपासिका : उदयनन प-मृगावतोदेवी सहित सपरिवार भगवान की सेवा में 5. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति / [5] उस काल (और) उस समय में (भगवान् महावीर) स्वामी (कौशाम्बी) पधारे, (उनका समवसरण लगा) यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। 6. तए णं से उदयणे राया इमोसे कहाए लखठे समाणे हट्टतुळे कोडुबियपुरिसे सहावेति, को० स० 2 एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणु प्पिया! कोसंवि नार सभिंतरबाहिरियं एवं जहा कुणिओ' तहेव सत्वं जाव पज्जुवासइ / 1. भगवतीसूत्र, अभय. वृत्ति. पत्र 558 / 2. उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पृ. 379-380 3, भगवती, अ. बृत्ति, पत्र 558 4. वही, पत्र 55 5. देखिये कणिक नप का भगवान की सेवा में पहुंचने का वर्णन---प्रौपपातिक मूत्र 29-32, पत्र 61-75 (यागमोदय समिति) में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org