________________ तेरसमो : आउकाइय-उद्देसओ तेरहवाँ उद्देशक : अप्कायिकों की उत्पत्ति आदि सम्बन्धी तेरहवें उद्देशक के प्रारम्भ में मध्य भंगलाचरण 1. नमो सुयदेवयाए। [1] श्रुत-देवता को नमस्कार हो / विवेचन-यह मध्य-मंगलाचरण है। आदि-मंगलाचरण करने के बाद अब शास्त्रकार शास्त्र की निविघ्न समाप्ति के लिए शास्त्र के मध्य में अर्थात् चौवीसवें शतक के तेरहवें उद्देशक के आदि में मंगलाचरण करते हैं / अप्कायिकों में उत्पन्न होनेवाले चौबीस दण्डकों में उत्पादादि प्ररूपणा 2. प्राउकाइया णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? एवं जहेव पुढविकाइयउद्देसए जाव पुढविकाइये गं भंते ! जे भविए प्राउकाइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं सत्तवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [2 प्र.] भगवन् ! अप्कायिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [2 उ.] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक-उद्देशक (बारहवें) में कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना / यावत् [प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, जो अकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले अप्कायिक में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की स्थिति वाले अप्कायिकों में उत्पन्न होता है / 3. एवं पुढविकाइयउद्देसगसरिसो भाणियन्वो, वरं ठिई संवेहं च जाणेज्जा / सेसं तहेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / // चउबीसमे सते : तेरसमो उद्देसमो समत्तो / / 24-13 / / [3] इस प्रकार यह समग्र उद्देशक (नौ गमकों सहित) पृथ्वीकायिक के समान कहना चाहिए। विशेष यह है कि इसकी स्थिति और संवेध (के विषय में यथायोग्य) जान लेना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org