________________ 374 {লায়মান सोमदेव = सोम लोकपाल के सामानिक देव / सोमदेवकायिक = सोमदेवों के पारिवार रूप देव / ' सूर्य और चन्द्र की स्थिति-यद्यपि अपत्यरूप से अभिमत सूर्य की स्थिति एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम और चन्द्र की स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम है, तथापि यहाँ ऊपर की बढ़ी हुई स्थिति की विवक्षा न करके एक पल्योपम कही गई है / 2 . यम लोकपाल के विमानस्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन-- 5. [1] कहि णं भंते ! सक्कस्स देविदस्त देवरण्णो जमस्स महारण्णो वरसि? णाम महाविमाणे पण्णत्ते। गोयमा ! सोहम्मडियस्स महाविमाणस्स दाहिणेणं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाई जोयणसहस्साई बोईवइत्ता एत्थ णं सक्कस्त विदस्स देवरण्णो जमस्त महारण्णो वरसिद्ध णाम महाविमाणे पण्णत्ते अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई जहा सोमस्स विमाणं तहा जाव अभिसेश्रो / रायहाणी तहेव जाव पासायपंतोप्रो। [5-1 प्र. भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-----यम महाराज का वरशिष्ट नामक महाविमान कहाँ है ? 5-1 उ.] 'गौतम ! सौधर्मावतंसक नाम के महाविमान से दक्षिण में, सौधर्मकल्प से असंख्य हजार योजन आगे चलने पर, देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल यम महाराज का वरशिष्ट नामक महाविमान बताया गया है, जो साढ़े बारह लाख योजन लम्बा-चौड़ा है, इत्यादि सारा वर्णन सोम महाराज के (सन्ध्याप्रभ) विमान की तरह, यावत् (रायपसेणिय में वर्णित) 'अभिषेक' तक कहना चाहिए / इसी प्रकार राजधानी और यावत् प्रासादों की पंक्तियों के विषय में कहना चाहिए। [2] सक्कस्स गं देविदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो इमे देवा प्राणा० जाव चिट्ठति, तं जहा-जमकाइया ति का, जमदेवयकाइया इवा, पेयकाइया इ वा, पेयदेवयकाइया ति वा, असुरकुमारा असुरकुमारीयो, कंदप्पा निरयवाला प्रामिनोगा जे यावन्ने तहप्पगारा सम्वे ते तभत्तिगा, तपक्खिता तबमारिया सक्कस्स देविदस्स देबरणो जमस्स महारणो प्राणा जाव चिट्ठति / [5-2] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल यम महाराज की आज्ञा, सेवा (उपपात), वचनपालन और निर्देश में रहते हैं, यथा-यमकायिक, यमदेवकायिक, प्रेतकायिक प्रेतदेवकायिक, असुर कुमार-असुर कुमारियाँ, कन्दर्प, निरयपाल (नरकपाल), प्राभियोग ; ये और इसी प्रकार के वे सब देव, जो उस (यम) की भक्ति में तत्पर हैं, उसके पक्ष के तथा उससे भरण-पोषण पाने वाले तदधीन भृत्य (भार्य) या उसके कार्यभारवाहक (भारिक) हैं। ये सब यम महाराज की आज्ञा में यावत् रहते 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 196-197 2. (क) भगवतीसूत्र (विवेचनयुक्त) भा. 2 (पं. घेवरचंदजी), पृ. 714 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 197 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org